उत्तराखण्ड की विशिष्ट लोक गायन शैली-‘झोड़ा/खेल’

1रीता पाण्डे (शोधार्थी)

2भास्कर दत्त कापड़ी (शोधार्थी)

3डॉ0 गगनदीप होठी

सहायक प्राध्यापक, संगीत विभाग, डी0 एस0 बी0 परिसर, कुमाऊँ विश्वविद्यालय,

नैनीताल, उत्तराखंड

1Email: reetapandey361@gmail.com

2Email: iambhaskarkapri@gmail.com

3Email: gaganhothi@gmail.com

सारांश

हमारे देश के विभिन्न भागों में निवास करने वाले मानव समूहों में उत्सवों, मेलों तथा मांगलिक कार्यों के समय नृत्य व गायन द्वारा मनोरंजन करने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है. उत्तराखण्ड भी इस परम्परा से अछूता नहीं है. प्राचीन समय में लोग मिलजुल कर रहते थे. अतः प्राचीन रीति-रिवाजों में हमें सामूहिक संस्कृति देखने को मिलती है. इसी सामूहिक संस्कृति की एक अद्भुत शैली है-‘झोड़ा अथवा खेल’. यह मुक्तक व प्रबंधात्मक गीतों के अंतर्गत मेलक गीतों की श्रेणी में आते हैं. यह उत्तराखण्ड की प्रमुख गायन शैलियों में से एक है. झोड़ा शैली में गायकी के साथ-साथ नृत्य भी सम्मिलित हैं. इसका चलन उत्तराखण्ड के लगभग सभी क्षेत्रों में देखा जाता है. कुमाऊँ में झोड़े को कई नामों से सम्बोधित किया जाता है, जैसे- झोड़ा, झ्वाड़ा, झवाड़, ज्वड़, हथजोड़ा तथा खेल आदि. 1 इसका मूल हिन्दी के ‘जोड़ा’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है- जोड़ना या मिलाना.  कुमाऊँनी भाषा में ‘जोड़ा’ शब्द को ‘ज्वड़’ कहा जाता है, जैसे- दुल्हा-दुल्हन के जोड़े को ‘बर-ब्योली ज्वड़’ कहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के हाथों के साथ अनूठा बंधन होता है. अतः जोड़कर गाये जाने के आधार पर ही यह विधा ‘झोड़ा’ नाम से विख्यात है. इस विधा को देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है. उत्तराखण्ड के पूर्वी सीमान्त क्षेत्र में इस प्रकार के नृत्य-गीत की विधा को ‘खेल’, अल्मोड़ा, रानीखेत, नैनीताल आदि क्षेत्रों में इसे ‘झोड़ा’, द्वाराहाट में ‘भिड़च्यपू’2, दनपुर में ‘चाँचरी’, नेपाल में ‘दोहरे’ के नाम से जाना जाता है. अल्मोड़ा जिले के सोमेश्वर, गेवाड़ व बोरारो घाटी के झोड़े बहुत प्रसिद्ध हैं. हुड़का, ढोल व दमाऊँ का प्रयोग झोड़ा शैली में ताल-वाद्य के रूप में किया जाता है.3 प्रस्तुत शोध-पत्र में ‘झोड़े’ पर विस्तार से अध्ययन करने व कुछ झोड़ों को स्वरलिपिबद्ध करने का प्रयास भी किया गया है.

महत्वपूर्ण शब्द: झोड़ा, हथजोड़ा, खेल, फगारी, नृत्यगीत, दोहरे.       

How to cite this paper:

Pandey, Rita, Bhaskar Dutta Kapari and Gagandeep Hothi. 2024. “Uttarakhand ki Vishisht Gayan Shaili – Jhoda/Khel.” Sangeet Galaxy 13(1): 162 -170. www.sangeetgalaxy.co.in.

झोड़े का स्वरूप: ‘झोड़ा’ कुमाऊँ की एक विशिष्ट शैली है जिसमें सामूहिक नृत्य व गायन किया जाता है. इसमें कौतुहल, प्रश्नोत्तर, हास्य व्यंजना, धार्मिक आख्यायें, सामाजिक तौर-तरीके, मनोरंजन व कृषि आदि से सम्बंधित गीतों को गाया जाता है. नृत्य के दौरान इस विधा में स्त्री-पुरूष व बच्चे सभी की सहभागिता देखी जा सकती है. ‘झोड़े’ में गाये जाने वाले गीत का प्रारम्भ जो व्यक्ति करता है उसे ‘बखाणन्या’(बखान करने वाला) कहते हैं. इसके द्वारा प्रारम्भ किये गये गीत के बोलों को अन्य लोग दोहराते हैं. शीघ्र ही गायकों का दल दो भागों में बँट जाता है. स्त्री व पुरूष पृथक-पृथक रूप से एक वृत्ताकार गोले में व्यवस्थित रूप से खड़े हो जाते हैं तथा मध्य में बखाड़ने वाला मुख्य गायक की भूमिका निभाता है. दोनों दल पंक्तिबद्ध होकर बारी-बारी से गीत के बोल गाते हुये गीत की लय-ताल के अनुसार दाहिनी ओर कदमों को एक साथ मिलाते हुये वृताकार पथ पर चलने लगते हैं. पहले एक दल गीत के बोल गाता है फिर दूसरा दल इन्हीं बोलों को दोहराता है. प्रायः दो-तीन या अधिक आवृति होने के बाद ‘बखाड़ने वाला’ जोर से गीत का अगला पद बोलता है तत्पश्चात् सभी समूहाकार साथी गीत को दोहराते हुए एक समान हस्त-मुद्रा व पद संचालन करते हुए आगे बढ़ते हैं.4 स्थान विशेष में हस्त-मुद्राओं व पद संचालन में भी भिन्नता पायी जाती है. यथासमय गीत की धुन में परिवर्तन होता रहता है जो झोड़े अथवा खेल के कथानक के अनुसार ‘बखाड़ने’ वाले पर निर्भर करता है. यह सुनने में अति कर्णप्रिय प्रतीत होता है. एक भी व्यक्ति द्वारा उत्पन्न व्यवधान से बँधी हुयी तारतम्यता का क्रम टूटने की संभावना रहती है, अतः झोड़े में शामिल होने व उससे बाहर आने हेतु लय व तारतम्यता का ध्यान देना अत्यावश्यक होता है. इस विधा में गायन व नृत्य दोनों का सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है, अतः इसे ‘नृत्य-गीत’ कहना अधिक सार्थक होगा. इसमें भाग लेने वाले लोगों की संख्या निश्चित नहीं होती. अधिक लोग होने पर गोलाकार घेरे की संख्या एक से बढ़ाकर दो, तीन, व चार भी की जा सकती है जिससे कम जगह में ज्यादा लोग भाग ले सकते हैं. कुमाऊँ के मासी-गेवाड़ क्षेत्र में एक नर्तक दल दूसरे गोलाकार नर्तक दल के कंधों पर चढ़कर नृत्य करता है जिसे इस क्षेत्र में ‘दो मंजिले झोड़े’ की ख्याति प्राप्त है.5 डॉ0 त्रिलोचन पाण्डेय जी के अनुसार- “झोड़े में लय व पद की गत्यात्मकता तीव्र अर्थात् तेज होती है इसलिए वह इसे संस्कृत भाषा के ‘झटित’ शब्द से उत्पन्न मानते हैं.” झोड़े मुख्यतः चैत्र मास में, उत्सवों, मेलों, शुभ कार्यों व वैवाहिक आदि अवसरों पर गाये जाते हैं.6 ‘झोड़ा’, हुड़कीबौल के साथ रोपाई, गुड़ाई, निराई आदि के समय भी गायी जाने वाली प्रचलित विधा है.

      ‘श्री पद्मादत्त पंत जी’ से प्राप्त जानकारी के अनुसार झोड़ा गायकी में दो पक्षों में सवाल-जवाब होते हैं तथा मूल पंक्ति अथवा मुखड़ा प्रत्येक अंतरे के बाद दोहराया जाता है. दोनों पक्ष बारी-बारी से एक-दूसरे का परिचय पूछते हैं. एक दूसरे का नाम, गाँव, घर-परिवार, हाल-समाचार, ठौर-ठिकाना, दै-धिनाली व आदलि-कुशलि आदि बातें जान लेने के बाद अन्य प्रकार का वार्तालाप करते हैं. इस वार्तालाप में वह एक-दूसरे पर व्यंग कर श्रोताओं का मनोरंजन भी किया करते हैं. वे प्रायः ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिससे ‘खेल’ अथवा ‘झोड़े’ में लगे हुये लोगों के साथ-साथ श्रोताओं का भी मनोरंजन होता रहे. प्रश्नोत्तर का यह क्रम आगे बढ़ता रहता है जो कई घंटों तक चलता है.

      कुमाऊँ में झोड़े के मुख्यतः दो रूप प्रचलित हैं- 1-मुक्तक, 2-प्रबंधात्मक. मुक्तक झोड़ों के अंतर्गत किसी भी सम-सामयिकी वार्ता अथवा वर्तमान घटना के आधार पर गीत बना दिया जाता है. इसके अतिरिक्त तुक मिलाने हेतु कोई भी पद जोड़ दिया जाता है. प्रबंधात्मक झोड़े प्रायः परम्परागत होते हैं. इसमें लोक-देवताओं, वीरपुरूषों आदि की गरिमामयी गाथा का वर्णन व रामायण-महाभारत आदि धार्मिक आख्यानों का गेय रूप में पग संचालन भी किया जाता है.  देवी-देवताओं में नंदादेवी, छुरमल, मलयनाथ, जयंती मैया आदि के झोड़े प्रसिद्व हैं.7 सामान्य परम्परानुसार सामूहिक नृत्य-गीतों का प्रारम्भ लोक में पूजित देवी-देवताओं की आराधना से किया जाता है. सर्वप्रथम उस स्थान के भूमि देवता से आशीर्वाद लिया जाता है जिसे सर्वत्र ‘भूमियाँ’ नाम से पुकारा जाता है. तत्पश्चात सभी देवताओं का नाम लेकर आशीर्वाद लिया जाता है जिसका उदाहरण इस प्रकार है-

भैंसी दूद गद्य्या  बद्य्या, गै दूद पनाइनो न्यौल्या । सब खिन दयालु होया, ये गौं का भूमियाँ न्यौल्या ।।

बनै काट्यो बनै छाट्यो, गोठै को थूमियाँ न्यौल्या । सब खिन दयालु होये, देवता मनैन न्यौल्या ।।

पिथौरागढ़ जनपद में गाए जाने वाले ‘झ्वाड़’: उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद में ‘झ्वाड़’ नामक एक गायन शैली है जो ‘झोड़े’ अथवा ‘खेल’ से भिन्न  है. बस नाम साम्य के कारण लोग इसे ‘नृत्य गीत झोड़ा’ समझने लगते हैं. बैठकर गायी जाने वाली इस शैली में नृत्य नहीं किया जाता. यह अधिकतर ‘दास’ व ‘ढोलियों’ (ढोल आदि वाद्ययंत्रों के साथ देवताओं की गाथायें गाने वाला समुदाय) द्वारा विलम्बित लय में गायी जाने वाली शैली है. यह गाथाएं पूरी रात भर चलती हैं. मांगलिक कार्यों में ‘फाग’ गाने वाली कुछ जिज्ञासु गायकार महिलायें भी इन्हें गाती हैं जिन्हें ‘फगारी’ अथवा ‘गिदार’ इसमें लोक देवी-देवताओं जैसे- हरु-सैम, छुरमल, बेताल, मलयनाथ, गोलू देवता आदि की गाथाओं को गाया जाता है. लोक देवी-देवताओं की व्याख्यात्मक आख्याओं का गायन ‘दमुवा’ नामक लोक अवनद्ध वाद्य के साथ किया जाता है. मुख्य गायक के साथ इसमें साथी गायकों द्वारा ‘भाग’(सहगान) भी लगाया जाता है. इन दैवीय गाथाओं को गाते समय कभी-कभी देवता भी अवतरित हो जाते हैं.8 उदाहरण स्वरूप पिथौरागढ़ जनपद में प्रचलित लोकदेवता ‘मलयनाथ जी का झ्वाड़’ निम्नलिखित है-

लोक देवता मलयनाथ जी का ‘झ्वाड़’

जोग्यालो कपाड़ा अब सिंणन मग्यान, बिभूत का गोला अब कपाल लायान हो… ई

तिमुरा का सोट्टा कल्लाई लट्ठी ज टेकला, झोला रे मेखाला गुसैं कानूनी हालाला हो… ई

जुग नै मानना अब जुग नै मानना, नैजा नैजा कूँथ्यूँ पूद लाग्या तेरा शिब हो… ई

बाटा लागी ग्यान अब पीपल चरड़ी, पूजी भल ग्यान अब भैठक हो ग्यान हो… ई

उथ्थें  भटे आयो आjजि छेपूला को दल, मलैनाथ गुसैं अब कामन मैग्यान हो… ई

नूनैरैन बाब कौला क्यालाकि कामछा, जाड़ो ज ह्वै नैरयो अब क्यालाकि कामद्दा हो… ई 9

उत्तराखण्ड के पूर्वी सीमान्त क्षेत्र में गाए जाने वाले ‘ठुल खेल’: उत्तराखण्ड के पूर्वी सीमान्त में पिथौरागढ़, धारचूला, झूलाघाट, लोहाघाट, चंपावत, आदि क्षेत्र आते हैं. इन क्षेत्रों में झोड़ों को ‘खेल’ कहा जाता है. ‘ठुल खेल’, खेल का ही दूसरा प्रकार है. यहाँ पर ‘ठुल’(बड़ा) का अर्थ ‘लय की विलंबित गति’ से है. यह विलंबित लय में गायी जाने वाली पुरुष प्रधान गायकी है. इनमें महिलायें भाग नहीं ले सकती हैं. ‘ठुलखेल’ में हस्त व पद संचालन की गत्यात्मकता का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है. इसके अंतर्गत रामायण व महाभारत की गाथाओं का गायन स्थानीय बोली भाषा में होता है जिसकी रोचकता, शब्दावलि तथा धुनें ‘बखाणने’ वाले के ज्ञान पर निर्भर करती हैं. इनमें ताल देने के लिये ढ़ोल, हुड़का व मंजीरा बजाया जाता है.                                                                                                                      

झोड़ों में सवाल-जवाब : खेल/झोड़ों  के माध्यम से आपसी वाद-विवाद अर्थात ‘दोहरे’ चलते हैं. यह हार-जीत पर ही समाप्त होते हैं. इसमें मुख्य गायकों की संख्या दो होती है जो बीच में रहकर अपने-अपने दल का नेतृत्व करते हैं. इनको ‘हजोड़िया’, ‘दोहरिया’, ‘चाँचरिया’ आदि नामों से पुकारा जाता है. यह भी सुनने को मिलता है कि महिलायें व पुरूष भी आपस में दोहरे लगाते हैं जिसमें उनकी आपस में शादियाँ तक हो जाती हैं. प्रायः पुरुषों के ‘खेल’ में दोनों दलों में पुरुष तथा महिलाओं के खेल में महिलायें ही हुआ करती हैं लेकिन मिश्रित ‘खेल’ में  एक ओर पुरुषों का दल तथा दूसरी ओर महिलाओं का दल होता है. अक्सर दोहरों में आपसी सवाल-जवाब के माध्यम से दो ‘खेलकारों’ में परस्पर ज्ञानवर्धक चर्चाएं व प्रतिस्पर्धाएं हो जाया करती थीं. इसमें खेलकारों की बौद्धिक क्षमता, तर्क-शक्ति, शास्त्रों का ज्ञान, उपनिषदों व लघु-कथाओं का ज्ञान, ऐण, किस्से, कहानियाँ व आपसी नोंक-झोंक इत्यादि की क्षमता का आँकलन भी होता था. खेल अथवा दोहरे का एक उदाहरण इस प्रकार है-

                                             खेल/दोहरे (सवाल-जवाब)

सवाल-  गंगा ज्यू का रिवाड़ में भूर्या-भूर्या पाती, राम चन्द्र कैको भान्ज, रावण कैको नाती ?

जवाब-  गंगा ज्यू का रिवाड़ में, भूर्या-भूर्या पाती, राम चन्द्रमा को भान्ज, रावण पुलस्त्यक नाती.10

‘न्यौली’ गीत से ‘झोड़े/खेल’, ‘हज्वाड़ा’ व ‘उल्टी न्यौली’ बनने की प्रक्रिया : ‘झोड़ा तथा चाँचरी’ की विधाओं में न्यौली गीतों के अतिरिक्त अनेक परम्परागत प्रबन्धात्मक गीत भी विद्यमान हैं. जब लोक गीतों के पदों में उपसर्ग या प्रत्यय के रूप में शब्दों या वाक्यांशों को जोड़ा जाता है तो गीत की लय, ताल तथा शैली आदि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है. उपसर्ग जिस गीत में सटीक बैठता है उसका प्रयोग केवल वहीं किया जाता है. लोक में प्रचलित कुछ उपसर्ग निम्नलिखित हैं- ‘मेरी हीरु न्हेगे रंगीला भाबर’, ‘दरि का चाल’, ‘मायादार/जोड़ीदार’, ‘झुम्मेलो’, ‘सुणिच्य की तैले/नै सुणि मैले’, ‘बनबासा, खटीमा, टनकपुर’, झुमक्याली आदि. लोक कलाकार यह भली-भांति कर पाते हैं. वह किसी भी गीत के शब्दों में फेर बदल कर उसे अन्य शैली में ढालने की कला रखते हैं. उदाहरण स्वरूप एक ‘न्यौली गीत’(वन गीत) इस प्रकार है. 

उदाहरण :                              

सिलगोड़ी का पाल चाल, गिन खेलून्या गड़ो ।

तें होय हिसालू तोपो, में उड़न्या चौड़ो ।।

न्यौली गीत से झोड़े/खेल : उपर्युक्त ‘न्यौली’ पद के अंत में क्रमश: ‘राम’ व ‘सीता राम’ शब्द को उपसर्ग की भांति जोड़ देने से ‘मुक्तक’ स्वरूप रखने वाली ‘न्यौली’, ‘प्रबंधात्मक झोड़े/खेल’ में परिवर्तित हो जाती है. झोड़े से भी ‘न्यौली’ गीत बन सकते हैं अर्थात यह एक सिक्के के दो पहलू हैं.  

उदाहरण:        

पहला पक्ष – सिलगोड़ी का पाल चाल राम, गिन खेलून्या गड़ो सीता राम ।

दूसरा पक्ष – तें होय हिसालू तोपो राम, में उड़न्या चड़ो सीता राम ।

पहला पक्ष – सब खिन दयालु होय राम, देवता गोरिल सीता राम ।

दूसरा पक्ष – सिलगोड़ी का पाल चाल राम, गिन खेलून्या गड़ो सीता राम ।

न्यौली गीत से हज्वाड़ा : यदि इसमें पहले पद के अंत में ‘राम’ शब्द हटाकर व दूसरे पद के अंत में ‘सीता राम’ शब्द के स्थान पर ‘न्यौल्या’ शब्द का प्रयोग किया जाय तो इसे ‘हज्वाड़ा’ कहा जायेगा. हज्वाड़ा में केवल ‘न्यौली’ गीतों को ही गाया जाता है.

उदाहरण:                        

सिलगोड़ी का पाल चाल । गिन खेलून्या गड़ो न्यौल्या ।

तें होय हिसालू तोपो । में उड़न्या चौड़ो न्यौल्या ।

काली  गंगा बगी आयो । बिन छोल्या को दार न्यौल्या ।

कसी कै बनालि इजू । बिन चेली को त्यार न्यौल्या ।11

न्यौली गीत से उल्टी न्यौली : उपर्युक्त शुद्ध न्यौली में यदि बाद के पद को मूल पंक्ति के पहले लगा दिया जाए तो वह ‘उल्टी न्यौली’ बन जाएगा.

उदाहरण:                  

गिन खेलून्या गड़ो, सिलगोड़ी का पाल चाल, गिन खेलून्या गड़ो ।

में उड़न्या चौड़ो, तें होय हिसालू तोपो, में उड़न्या चौड़ो ।।

ये गों का भूमियाँ, सबखिन दयालु होया, ये गों का भूमियाँ ।

अंत में दो झोडों को स्वरलिपि सहित प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें पहला झोड़ा माँ भवानी और भक्त के बीच प्रश्नोत्तरी शैली में है. यह उत्तराखंड के कुमाऊँ मण्डल में सर्वाधिक गाये जाने वाले झोड़ों में से एक है. दूसरा सुप्रसिद्ध झोड़ा ‘चौखुटिया-गेवाड़’ क्षेत्र का है. इसे लोकगायक ‘नैननाथ रावल’ जी ने बहुत ही मधुर ध्वनि में गाया है.   

झोड़ा (देवी-स्तुति)

ओहो खोल दे माता खोल भवानी धारमा केवाड़ा.

ओहो के ल्या रेछे भेट पखोवा, के खोलुँ केवाड़ा.

ओहो द्वि ज्वाड़ा बाकार लै रयूँ तेरो दरबारा.

ओहो के ल्या रेछे भेट पखोवा, के खोलुँ केवाड़ा.

ओहो फूल पाती ध्वजा लै रयूँ तेरो दरबारा.

ओहो खोल दे माता खोल भवानी धारमा केवाड़ा.12

स्वरलिपि

मात्रा       1       2       3       4       5      6
हुड़का       भं       ऽ       प       प      भं       ऽ
तबला       धा      धी       ना      धा      तू      ना
स्वर       ऽ       ऽ       ऽ       प       प       प
शब्द       ऽ       ऽ       ऽ      ओ       हो       ऽ
स्वर       प       प       ध       म       प       रे
शब्द       खो       ल       दे       मा       ता       ऽ
स्वर       म       म       म       मध       पम     (प)म
शब्द       खो       ल       भ       वा       नी      ऽ ऽ
स्वर        ध़       सा       सा        रे        म        म 
शब्द       धा       ऽ        र        मा        के       ऽ
स्वर        प        प        प        प        प       प
शब्द       वा       ड़ा            ऽ       ओ       हो       ऽ
ताल चिन्ह        ×          0  

प्रस्तुत झोड़े में माँ और भक्त के बीच प्रश्नोत्तर शैली में संवाद चल रहा है. इसमें भक्त माँ से कहता है- माँ अपने मंदिर के किवाड़ खोल दे, मैं तेरे दर्शन को आया हूँ. इस पर माँ पूछती हैं- पहले ये बता मेरे लिए कुछ भेंट या चढ़ावा लाया है? पुनः भक्त उत्तर में कहता है- फूल, पाती, धूप, दो जोड़ी बकरी आदि सभी तेरे लिए लाया हूँ. इस झोड़े में मुख्य पद दो अथवा चार ही हैं. इसमें अपने-अपने अनुसार अनेक पद जोड़े जाते हैं. सम्पूर्ण गीत इसी तर्ज पर चलेगा.  

चौकोटे की पार्वती (चौखुटिया-गेवाड़ में प्रचलित झोड़ा)

चौकोटे की पार्वती, सौरासा नी जानी बली, सौरासा नी जानी.

मासी को प्रताप लौंडा, स्कूल नी जानी बली, स्कूल नी जानी.

दानपुरा दान्याल हालो, दानों टूटो मैको बली, दानों टूटो मैको.

मैं उदास त्यर लागो, त्वै उदास कैको बली, त्वे उदास कैको.

सौज्यू मा का भ्यड़ बकार, नूण लागा चटाण बली, नूण लागा चटाणा.

हल लाये हल्यूणी लाये, पिलाये ब्वे द्यूनो बली, पिलाये ब्वे द्यूनो.

तेरी मेरी बैठून्या ठौरा, झिटघड़ी रो द्यूनो बली, झिटघड़ी रो द्यूनो.

चौकोटे की पार्वती, सौरासा नी जानी बली, सौरासा नी जानी.

मासी को प्रताप लौंडा, स्कूल नी जानी बली, स्कूल नी जानी.13

स्वरलिपि (सम्पूर्ण गीत इसी तर्ज पर आधारित)

मात्रा       1       23       4       56
हुड़का       भं       ऽ  प       प      भं 
तबला       धाधीनाधातूना
स्वर(प)रेसासा
शब्दचौकोटे  की
स्वररेपध(प)
शब्दपाती
स्वर(प)रेसासा
शब्दसौरानि
स्वररेपध(प)
शब्दजानीली
स्वर(प)रेसारे
शब्दसौरानि
स्वर
शब्दजानी
ताल चिन्ह ×   0  

निष्कर्ष:

झोड़ा गीतों में केवल एक विषय नहीं अपितु विषय वैविध्य होता है. कहीं पर साली-भिना का संवाद है तो कहीं पर हमारे वीर योद्धाओं की शौर्य गाथाओं का वर्णन. कहीं पर किसी स्थान विशेष के सौंदर्य, रहन-सहन, भौगोलिक परिपाटी का जिक्र है तो कहीं पर हमारे देवी-देवताओं की गाथाओं की अद्भुत व रोचक आख्यायें. यह कुमाऊँ की भौगोलिक बनावट तथा यहाँ के लोगों की सरलता को भी दर्शाता है. झोड़ा मध्य व विलम्बित लय की गायकी तथा  नृत्य है जो यहाँ के मानवीय जीवन व सम्पन्नता को भी दर्शाती है. इस शैली में न केवल लोक संस्कृति प्रस्फुटित होती है अपितु यह समाज की जाति वर्ण व्यवस्था को भी नकारता है. सभी एकसाथ मिल-जुल कर हँसते-गाते आनंद से इस लोक परंपरा में भाग लेते हैं व एकाकार होने का संदेश भी देते हैं. गीत व नृत्य के माध्यम से यह विधा हमें मिल-जुल कर रहना, एक-दूसरे के काम में हाथ बँटाना व अपनी संस्कृति का संरक्षण-संवर्धन करना भी सिखाती है.  सम्पूर्ण उत्तराखंडियों को अपनी इस अनमोल परंपरा व लोक संस्कृति पर अपार गर्व होना चाहिए. इसके माध्यम से हम अपने समाज, संस्कृति व इतिहास को बिना किसी अतिरिक्त श्रम के सीख जायेंगे. साथ ही इससे यह परंपरा हमारी भावी पीढ़ी में भी अग्रसरित होगी. हमारी पहचान आज से नहीं अपितु हमारी पुरातन संस्कृति से होती है जो हमें अपनी पारंपरिक धरोहरों से मिलती है. अतः हम सभी का यह कर्तव्य ही नहीं अपितु जिम्मेदारी भी है कि हमें अपने पारंपरिक अनुष्ठानों, मेलों, त्यौहारों आदि में निरंतर शामिल होकर इन विधाओं को सीखना चाहिए और आने वाली पीढ़ी को इन परंपराओं से जोड़े रखना चाहिए.

संदर्भ ग्रंथ सूची:

  1. तिवारी, ज्योति. कुमाऊँनी लोकगीत तथा संगीत-शास्त्रीय परिवेश. नई दिल्ली: कनिष्क पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण 2002, पृ. 98.
  2. वही
  3. लोहिया, धीरज कुमार. (कुमाऊँनी लोक कलाकार व ढ़ोल-दमुवा वादक), भास्कर दत्त कापड़ी द्वारा साक्षात्कार, जून 21, 2022, कुमाऊँनी लोक कलाकार मौखिक इतिहास संग्रह, भाव राग ताल नाट्य अकादमी पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड.      
  4. जोशी, मोहन. (कुमाऊँनी साहित्यकार), रीता पाण्डे द्वारा साक्षात्कार, दिसम्बर 20, 2022, कुमाऊँनी लोक साहित्यकार मौखिक इतिहास संग्रह, गरुड़, बागेश्वर, उत्तराखण्ड.     
  5. तिवारी, ज्योति. कुमाऊँनी लोकगीत तथा संगीत-शास्त्रीय परिवेश. नई दिल्ली: कनिष्क पब्लिशर्स, प्रथम संस्करण 2002), पृ. 98.
  6. वही
  7. कापड़ी, गणेश दत्त. (ठुल खेल गायकार), भास्कर दत्त कापड़ी द्वारा साक्षात्कार, जनवरी 4, 2023, कुमाऊँनी खेलकार मौखिक संग्रह, सतगढ़, पिथौरागढ़ , उत्तराखण्ड.    
  8. कापड़ी, गोविंदी. (लोकगायिका/फगारी), भास्कर दत्त कापड़ी द्वारा साक्षात्कार, जनवरी 5, 2023, लोकगायिका मौखिक संग्रह, सतगढ़, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड.    
  9. भट्ट, जीवंती देवी. (लोक गायिका/फगारी), ध्वनि संग्रह, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड.     
  10. लोहिया, धीरज कुमार. लोकपर्व सातूँ-आठूँ एवं हिलजात्रा. पिथौरागढ़: ओएनजीसी भाव राग ताल नाट्य अकादमी प्रथम संस्करण 2020, पृ. 16
  11. पंत, पद्मादत्त. (इतिहासकार व लेखक), रीता पाण्डे द्वारा साक्षात्कार, फरवरी 20, 2023, इतिहासकार व लेखक मौखिक इतिहास संग्रह, लयून्ठूड़ा मार्ग, पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड.    
  12. राम, भवानी (लोकगायक), रीता पाण्डे द्वारा साक्षात्कार, नवंबर 2, 2023, आडियो-वीडियो संकलन, ग्वाली, आगरनौला, चैखुटिया, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड.
  13.  https://youtu.be/ibsKsMMM3rak?si=9fyvcD59uNWwiQoS