गढ़वाल के प्रमुख लोक वाद्यों का अध्ययन

1अलकेशिका भट्ट(शोधार्थी)

डॉ. शिव नारायण(पर्यवेक्षक)

भारतीय शास्त्रीय संगीत विभाग, देव संस्कृति विश्वविद्यालय,

हरिद्वार, उत्तराखंड

1Email: alkeshika@gmail.com

सारांश

प्रस्तुत आलेख में शोधार्थी द्वारा वाद्यों की संगीत में उपयोगिता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है. वाद्यों की प्रकृति के अनुरूप गढ़वाल के लोक संगीत में प्रयुक्त किए जाने वाले विविध लोक वाद्यों को वर्गीकृत कर उनका वर्णन किया गया है. इसमें अध्ययन किया गया है वाद्य क्या हैं और इन की शास्त्रीय प्रकृति क्या है और इन का क्या महत्त्व है. वाद्यों की शास्त्रीय प्रकृति के अन्तर्गत उत्तराखण्ड के लोक एवं प्रमुख वाद्य किस श्रेणी में रखे जाते हैं, इस पर शोधार्थी ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है.  ये वाद्य किस प्रकार लोक संगीत का अंग हैं, कौन से वाद्य उत्तराखण्ड के मूल वाद्य हैं, किस प्रकार और किन उद्देश्यों के लिए इनका प्रयोग किया जाता है. इसके अतिरिकत इस अध्ययन में यह जानने का प्रयास किया गया है कि कुछ प्रमुख वाद्य किस प्रकार उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति के अंग बन गए हैं, क्यों कुछ वाद्य विलुप्तप्रायः होते जा रहे हैं. इन वाद्यों का यहाँ की लोक संस्कृति और लोक संगीत में क्या स्थान है, यहाँ के जनमानस की जीवन शैली में ये लोक वाद्य क्या महत्त्व रखते हैं, किन प्रयोजनों के लिए ये उपयोग किए जाते हैं, इस लेख में इन सब बिंदुओं का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है.

मुख्य शब्द: वाद्य, लोक वाद्य, उत्तराखण्ड के लोक वाद्य, वाद्यों के प्रकार 

How to cite this paper:

Bhatt, Alkeshika and Shiv Narayan. 2024. “Garhwal ke Pramukh Lok Vadyon ka Addyayan.” Sangeet Galaxy 13(1): 171-181. www.sangeetgalaxy.co.in.

प्रस्तावना:

हिन्दू संस्कृति के अंतर्गत जितने भी देवी-देवता हैं उनका सम्बन्ध संगीत से अवश्य रहा है और वे अपने-अपने वाद्य हाथों में धारण किये रहते हैं. जैसे- सरस्वती माता के हाथ में वीणा,कृष्णा जी हाथों में बांसुरी, शिवजी के हाथों में डमरू,विष्णु जी के हाथों में शंख इत्यादि.  इस प्रकार सभी का सम्बन्ध संगीत-वाद्यों से भी है. कोई भी संगीत, वाद्यों की संगत के बिना पूर्ण नहीं होता फिर वो शास्त्रीय संगीत हो या लोक संगीत. वैसे तो सभी वाद्य गीत के अधीन होते हैंकिन्तु वाद्यों की संगत के बिना कोई भी गीत और नृत्य पूर्ण रस की निष्पत्ति करने में असमर्थ होते हैं.भारत विविधताओं का देश है जिसके कारण यहाँ हर एक राज्य की अपनी एक अलग संस्कृति है जो इसे विविध बनाने में सहयोग करती है. उन्हीं में से एक है उत्तराखंड राज्यजो अपने अनुपम सौंदर्य के लिए जाना जाता है. बहुत से देवस्थल होने के कारण इसे देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है. उत्तराखंड मुख्यतः दो मंडलों में विभाजित है –  कुमाऊं और गढ़वाल मंडल, जिनका उल्लेख वैदिक ग्रंथों में क्रमशः मानसखंड और केदारखंड के नाम से मिलता है. इन दोनों ही मंडलों की संस्कृति की अपनी अलग विशेषताएं हैं कुछ विशेषताएं दोनों की समान हैं तो कुछ दोनों को एक दूसरे से भिन्न करती हैं. उसी प्रकार से यहाँ का लोक संगीत भी है. यहाँ हम गढ़वाल के लोकसंगीत के अंतर्गत प्रयोग होने वाले वाद्यों का अवलोकन करेंगे.गढ़वाल को 52 गढ़ों की भूमि कहा जाता था जिसके कारण इसका नाम गढ़वाल रखा गया. गढ़वाल का लोकसंगीत भी यहाँ की मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य की तरह मनमोहक है. जहां की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से निकलती लोक संगीत की ध्वनि केवल जीवों को ही नहीं अपितु देवताओं को भी मंत्रमुग्ध करने का सामर्थ्य रखती है.गढ़वाल का लोकसंगीत प्राचीन और अत्यंत  समृद्ध है और यहाँ लोक वाद्यों का भण्डारण है.

लोक वाद्यों की उत्पत्ति:

वाद्य शब्द ‘वद् धातु में ‘णिच’ और ‘यत’ प्रत्यय लगाने से बनता है. जिसका अर्थ वाद्य यंत्र होता है. वाद्यों की उत्त्पति अनादिकाल से मानी जाती है.  इनकी उत्त्पत्ति का कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं है.माना जाता जाता है कि जब से संगीत की उत्त्पति हुयी उसके साथ ही वाद्यों की भी उत्त्पत्ति हुयी है. अगर इतिहास की ओर देखें तो प्रागैतिहासिक काल में भी वाद्यों के अवशेष प्राप्त हुए हैं उसी तरह वेदों में भी वाद्यों का उल्लेख हुआ है. सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में वाद्यों की श्रेणी में ‘वाण’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो तार वाद्यों के लिए प्रयोग किया गया है और वेदों में चारों प्रकार के वाद्यों का वर्णन भी मिलता है.  इससे यह ज्ञात होता है की वाद्यों की उत्त्पति गायन के साथ ही हो गयी थी.उसी प्रकार लोक वाद्यों की उत्त्पति भी लोक गीत की लय के अनुसार जनरूचि के आधार पर की गयी होगी क्यूंकि हर क्षेत्र का अपना एक अलग लोकसंगीत होता है और उसी के आधार पर हर एक क्षेत्र के वाद्यों में भिन्नता भी पायी जाती है. जो लोक संस्कृति को समृद्ध बनाती है.लोक संगीत में भी वाद्यों के चारों प्रकार देखने को मिलते हैं.वाद्यों के विषय में कुछ विद्वानों ने अपने विचार प्रकट इस प्रकार किये हैं. ” संगीतात्मक ध्वनि अथवा गति को प्रकट करने वाले उपकरण वाद्य कहलाते हैं. “(Yaman, 2021, p. xx)1.

“वाद्य यंत्र वास्तव में ध्वनि को तत्काल उत्पन्न करने के स्थूल साधन हैं क्यूंकि जब हम किसी ध्वनि को श्रवण करने की इच्छा से उत्पन्न करते हैं तो उसे किसी स्थूल कृतिम साधन के घर्षण ताड़न और फुंकार से उत्पन्न कर सकते हैं. ऐसे साधनो को वाद्य यंत्र कहा जाता है” (Dhaundiyal, 2018, p. xx)2.

वाद्यों का वर्गीकरण:

वाद्यों के चारों प्रकार वैदिक काल में ही विकसित हो चुके थे किन्तु वाद्यों का वैज्ञानिक वर्गीकरण का श्रेय जाता है नाट्यशास्त्र के रचियता भरतमुनि को इन्होने वादयों काचतुर्विधि वर्गीकरण किया और वाद्यों को तत,अवनद्ध,घन, और सुषिर की श्रेणी में बांटा. इसके अतिरिक्त भी अन्य विद्वानों ने अपने अपने वर्गीकरण प्रस्तुत किये.

“भरतमुनिप्रणीतं नाट्यशास्त्रम्

अथ अष्टाविंशोऽध्यायः .

आतोद्यविधिमिदानीं वक्ष्यामः .

ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च .

चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम्” ॥१॥

(Bharta, 2006)3

नारदकृत “संगीत मकरंद” में नाद के पांच भेद बताए हैं नखज, वायुज, चर्मज, लोहज, शरीरज जिसमें नखज का तात्पर्य वीणा आदि वाद्यों से है,वायुज का बांसुरी आदि वाद्यों से,चर्मज का तबले, मृदंग जैसे वाद्यों से,लोहज का कांस्य या अन्य धातु वाले वाद्य जैसे घंटी,चिमटा आदि और अंत में शरीरज यानी शरीर से निकलने वाले नाद या आवाज को नाद बताया है इस प्रकार से पंचविध नाद का उल्लेख उन्होंने अपने ग्रन्थ में किया है. अर्थात नारद मुनि के चार नाद तो चतुर्विधि वाद्य वर्गीकरण के सामान हैं किन्तु शरीरज उन्होंने अतिरिक्त नाद माना है. नारदीय शिक्षा में वाद्यों के लिए पंचमहावद्यानि का प्रयोग हुआ है. इसके अतिरिक्त कई विद्वानों ने तीन प्रकार के वाद्य भी माने हैं. किन्तु संगीत के विद्वानों ने चार प्रकार के वाद्यों का वर्गीकरण ज्यादा तर्कसंगत पाकर इसे ही स्वीकार किया है.

  1. अवनद्ध –  अवनद्ध वाद्य ताल वाद्यों के नाम से भी जाने जाते हैं. इन वाद्यों के निर्माण में चमड़े का प्रयोग होता है किसी लकड़ी,धातु के खांचे को चमड़े से मढ़ देनेके बाद एक पूरे वाद्य का निर्माण होता है. इन वाद्यों को हाथों से या फिर लकड़ी की सहायता से बजाया जाता है. जैसे तबला,ढोलक,ढोल, पखावज,मृदंग इत्यादि.
  2. घन वाद्य  – घन वाद्यों को ठोस वाद्य के नाम से भी जाना जाता है. इन वाद्यों को बनाने के लिए ठोस धातु का उपयोग किया जाता है इन वाद्यों का निर्माण एक बार हो जाने पर इन्हें बार-बार सुर में नहीं मिलाना पड़ता है. ये वाद्य संगीत में लय देने का कार्य करते हैं. जैसे – घंटा,चिमटा,मंजीरा,करताल,घड़ियाल आदि.
  3. सुषिर वाद्य – ये वे वाद्य कहलाते हैं जिनसे ध्वनि निकालने के लिए वायु का उपयोग किया जाता है अर्थात् फूँक कर बजाये जाने वाले वाद्य सुषिर वाद्य कहे जाते हैं. जैसे बांसुरी, अलगोजा, शंख,मशकबीन इत्यादि.शास्त्रीय वाद्यों और लोक वाद्यों के वर्गीकरण में कोई अंतर नहीं पाया जाता है लोक वाद्य भी इसी वर्गीकरण के अंतर्गत आते हैं. 
  4. तत वाद्य – तत  वाद्यों को तंत्री वाद्य भी कहा जाता है यह वे वाद्य होते हैं जिनमें धातु की तार लगी होती हैं इन धातु की तारों को उँगलियों या अन्य सहायक उपकरण के द्वारा छेड़ने पर इन वाद्यों से संगीतोपयोगी ध्वनि निकलती है ये वाद्य ही तत वाद्य कहे जाते हैं. इनके अंतर्गत तानपुरा,वीणा ,सारंगी, इकतारा,सितार इत्यादि वाद्य सम्मिलित हैं.

गढ़वाल के लोक और प्रमुख वाद्य:

  1. अवनद्ध वाद्य –ताल वाद्यों का प्रयोग गढ़वाल में सबसे पहले आता है कोई भी कार्यक्रम हो वो ढोल–दमाऊ के बिना अधूरे माने जाते हैं शायद ही कोई ऐसा कार्य हो जिनमें ये वाद्य ना बजाये जाते हों इससे इनकी गढ़वाल में उपयोगिता का पता चलता है.

ढोल दमाऊं – गढ़वाल के सबसे पौराणिक और सबसे महत्वपूर्ण वाद्यों में सबसे पहले आने वाले वाद्य ढोल और दमाऊं ही हैं. ये गढ़वाल के सबसे ज्यादा लोकप्रिय वाद्य हैं जिनके बिना कोई भी समारोह अपूर्ण ही रहता है. जागर जैसी प्रक्रियाओं में ढोल अत्यंत महत्वपूर्ण वाद्य है और दमाऊ इसका सहायक वाद्य  है.  इन दोनों की सम्मलित धुन से जो ताल बनती है वही ताल वास्तविक ताल मानी जाती है. ढोल वाद्य के संदर्भ में ढ़ोंढियाल जी का कथन है कि “ढोल को बजाने का मुख्य ग्रन्थ ‘ढोल सागर’ माना जाता है जोकि शंकर वेदांत अर्थात शब्द सागर का लघु रूप है” (Dhaundiyal, 2018, p. xx)4.  ढोल का आकार गोलाकार होता है जो ताम्बे का बना हुआ होता है जिसके दोनों ओर पूड़ी लगी होती है जो कि चमड़े की बनती है. इसे बजाने वाले को ढोलीदास कहा जाता है जो इसे गले में एक रस्सी के द्वारा पहन कर दाहिने हाथ से लकड़ी के सहारे से और बाएं हाथ की अँगुलियों से ताल को बजाता है. वहीं दमाऊं को ढोल का सहायक वाद्य कहा जाता है. जिसका उल्लेख दमामा- सागर में मिलता है. इसे बजाने वाले को औजी कहा जाता है. ढोल एक आधी कटी बॉल की तरह होता है जिसके खुले सिरे को चमड़े की पूड़ी से मढ़ा जाता है इसका स्वरुप नगाड़े के सामान होता है.  औजी  इसे गले में लटकाकर दोनों हाथो में लकड़ी की पतली डंडी लेकर इसे बजाता है.

स्त्रोत: स्त्रोत: लोककला संस्कृतएवं निष्पादन केन्द्र,हेमवती नंदन गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय, श्रीनगर.

हुड़का या हुड़की –यह लगभग एक फुट तीन इंच की लम्बाई का होता है तथा इसके दोनों और चढाई जाने वाली पूड़ी का व्यास छह या सात इंच का होता है. इसकी पूड़ी बकरी की खाल से बनायी जाती है.हुड़की के साथ संगत करने वाले वाद्यों में बांसुरी और कांस की थाली आती है. हुड़की को एक कंधे पर लटका केबाएं हाथ से बजाया जाता है और दूसरा हाथ हुड़की के बीच में यानि उसकी कमर पर होता है.  यह डमरू की तरह ही दिखने वाला वाद्य है किन्तु इसकी गोलाई के कारण यह डमरू से अलग हो जाता है. इस वाद्य का उपयोग गीतों, लोकगीतों, जागरों में किया जाता है.  हुड़की दो प्रकार की होती हैं बड़े को हुडुक और छोटे को साइत्या कहा जाता है. “हुड़की के मौलिक बोल हैं -दहुँ, द,क, धौं “(Maithani, 2006, p. xx)5 .

स्त्रोत: https://www.pahaadreview.net.in/uttarakhand-ke-vadya-yantra/

डौंर (डमरू)- डौंर या डमरू को शिव जी का वाद्य माना जाता है और डमरू से ही चौदह माहेश्वर सूत्र निकले हैं.  चूँकि गढ़वाल की भूमि को शैव यानि शिव की भूमि भी कहा जाता है जिसके कारण डौंर का उपयोग पूजा इत्यादि के कार्यों में किया जाता है इसे बजाने वाले मुख्यतः ब्राह्मण जागरी हुआ करते थे लेकिन अब जन सामान्य में भी इसका वादन होता है. डौंर वाद्य बजाने वाला दोनों घुटनो के बीच डौंर को रखकर इसके ऊपर के भाग को लकड़ी की सहायता से और निचले भाग को हाथ की सहायता से बजाता है.  डौंर के साथ काँसे की थाली की संगति वांछनीय होती है जिसे केवल एक लकड़ी की सहायता से बजाया जाता है. “डौंर के मौलिक बोल केवल तीन हैं  डैंइ,डिप,डिं परन्तु कभी ताल को अधिक प्राणवान बनाने के लिए घुर्र का उपयोग होता है” (Maithani, 2006, p. xx)6.

  1. ढोलक- ढोलक पूरे भारत वर्ष में प्रचलित वाद्य है.  गढ़वाल में इसका उपयोग मुख्यतः व्यावसायिक गायकों में देखा गया है जैसे बाद्दी जनजाति के गीतों में, इसके अलावा आछरि लोक गाथाओं में,होली के गीतों में और सैदवाली (भूतों के जागर) में इसका उपयोग देखा गया है. ढोलक शिल्पकारों के द्वारा आम और साल की लकड़ी के द्वारा बनाया जाता है. इसकी पूड़ी बकरी की खाल से बनायी जाती है. गढ़वाल में ढोलक मुख्यतः खुले हाथ से बजायी जाती है.  लोक तालों में दादरा व कहरवा की प्रधानता रहती है.
स्त्रोत: स्त्रोत: लोककला संस्कृतएवं निष्पादन केन्द्र,हेमवती नंदन गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय, श्रीनगर.

नगाड़ा- नगाड़ा वाद्य दमाऊं वाद्य का बड़ा रूप होता है. इसको नगर के नाम से भी गढ़वाल के क्षेत्र में जाना जाता है. इस वाद्य का वादन जमीन पर रखकर इसको दो लकड़ी की सहायता से बजाया जाता है. इस वाद्य का उपयोग सूचना देने व सावधान करने के लिए किया जाता है.  किन्तु वर्तमान में इस वाद्य का उपयोग नाममात्र के रूप में रह गया है कुछ क्षेत्र हैं जहाँ ये वाद्य संरक्षित तो है लेकिन इसका वादन नहीं होता है जैसे – जौनसार ,चमोली, उत्तरकाशी इन जिलों के सुदूर क्षेत्रों में ये वाद्य संरक्षित है.

  • घन वाद्य- गढ़वाल में अवनद वाद्यों के बाद दूसरा स्थान घन वाद्यों का आता है. प्रायः ये अवनद्ध वाद्यों के सहायक वाद्यों के रुप में जाने जाते हैं. इनका उपयोग भी बहुत से कार्यक्रमों में होता है.

2.1. कांसे की थाली-काँसे की थाली, डौंर(डमरू) के साथ सहायक वाद्य के रूप में बजायी जाती है. यहाँ थाली साधारण थाली की तरह ही होती है लेकिन बाजगी अपने स्वर के अनुसार थाली का चुनाव करता है.  थाली को पाथा(अनाज नापने का एक प्रकार का बर्तन) के ऊपर रखकर एक लकड़ी की सहायता से बजाया जाता है. कभी-कभी डौंर वादक ही काँस की थाली व डौंर को एक साथ भी बजाता है. कांस्य की थाली का उपयोग मुख्यतः जागर के गीतों में होता है. कांस की थाली की तुलना गढ़वाल में देवी से की गयी है जहाँ डौंर को शिव और कांस की थाली को पार्वती का रूप कहा गया है.“डमरू भगवान शंकर का वाद्य है और थाली भगवती पार्वती का वाद्य माना जाता है. दोनों के गंभीर, दृढ़, कोमल और मधुर स्वर होते हैं.  डमरू का स्वर गूढ़ और गंभीर माना जाता है और थाली का स्वर कोमल और मधुर है,दूसरे शब्दों में डमरू पुरुष है तो थाली नारी है”(Maithani, 2004, p. xx)7.

  • घंटा- घंटा एक ऐसा वाद्य है जो हर पूजा के कार्य में प्रयोग होता है. लोक वाद्यों के रूप में इसका उपयोग देवी-देवताओं से सम्बंधित जागरों में देखा जाता है.  इसका निर्माण मुख्यतः पीतल से किया जाता है.
स्त्रोत: https://www.kafaltree.com/binai-uttarakhandi-musical-instrument/

मोरछंग-  मोरछंग वाद्य गढ़वाल के क्षेत्र के अलावा और भी राज्यों और देशों में अलग-अलग नामों  से जाना जाता है. यह वाद्य लोहे की पतली छड़ियों से बना हुआ लगभग ३ इंच का वाद्य होता है. दो लोहे की छडियों के बीच एक पतली सी धातु की लचीली पत्ती होती है जिसको छेड़ने पर संगीतोपयोगी ध्वनि निकलती है.  वाद्य की दो लोहे की छड़ियों को मुँहमें रखकर हाथ से बीच की छड़ी को हिलाकर बजाया जाता है.  इसका उपयोग गढ़वाल में लोकगीतों में होता था और घास के लिए जंगल जाने वाली स्त्रियों के द्वारा बजाया जाता था किन्तु अब इस वाद्य का उपयोग बहुत कम हो गया है.

  • भाणु – भाणु  गढ़वाल का एक लुप्तप्राय वाद्य है. उत्तराखंड के कुछ लोकगीतों में केवल इस वाद्य का नाम ही सुनने को मिलता है. यह देवोपासना का मुख्य वाद्य हुआ करता था और अष्टधातु से बना हुआ होता था. “कहते हैं भाणु पर आघात करने से जो स्वर निकलता था वह तीनो लोको में गूंजता था.” (Barthwal, 2017, p. xx)8.
    • घुंघरू- घुंघरू पीतल के बने हुए होते हैं जिनका आकार छोटा और गोल होता है जिसे बीच में से आधा चीरकर इसके भीतर लोहे की गोली डाली जाती है जिसके कारण ये बजता है. ऐसे ही छोटे-छोटे घुंघुरुओं की लड़ी बना कर उन्हें डोरी में पिरोया जाता है. जिसे ढोल वादक और हुड़की वादक प्रयोग करते हैं. पहाड़ की घस्यारी (घास लेने जाने वाली औरतें) इसे अपनी दथुड़ी(दरांती–घास काटने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला औजार) में बांध देती हैं जिसके कारण इसे “छुणख्याळी दाथुड़ी” भी कहा जाता है इन घुंघरुओं के कारण जंगल में घास काटते समय विषैले कीट व सांप बिच्छू इसकी आवाज सुनकर दूर रहते हैं.
  • सुषिर वाद्य- गढ़वाल के लोक वाद्य में वाद्यों की उपयोगिता के आधार पर सुषिर वाद्य तीसरे स्थान पर आते हैं.

रणसिंघा- रणसिंघा के नाम से ही प्रदर्शित होता है कि यह वाद्य रण में वीरों में जोश भरने के लिए ढोल दमाऊ, तुरी के साथ बजायाजाता था.यह पीतल का वाद्य होता है इसके तीन भाग होते हैं जिन्हे जोड़ कर इसको बजाया जाता है इसकी आकृति सर्पाकार होती है. अब इसका प्रयोग नाटी नृत्य, हारुल,रांसू, तांदी जैसे गीतों में होता है. रणसिंघा पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा और भी बहुत सारे राज्यों में प्रचलित वाद्य है जैसे- राजस्थान, महाराष्ट्र इत्यादि.

स्त्रोत:लोककला संस्कृतएवं निष्पादन केन्द्र,हेमवती नंदन गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय, श्रीनगर

शंख- वैदिक काल से ही शंख देवताओं के आवाहन के लिए बजाया जाता था. पूजा पथ जिसके कार्यों में शंख अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. शंख को बजने के दो प्रकार गढ़वाल में प्रचलित हैं पहला प्रकार जब शंख की इकहरी ध्वनि बजती है तो यह दर्शाता है कि किसी की मृत्यु हुई है और जब शंख दो बार बजाया जाता है तो इससे पता चलता है की यहाँ किसी शुभ या दैवीय कार्य में बजाया जा रहा है. शंख के कई प्रकार प्रचलित हैं.

स्त्रोत: जागरी मोली, ग्राम स्वीत, श्रीनगर गढ़वाल

भंकोरा- यह वाद्य  देव पूजा व उपासना के समय नौबत और धुंयाल के अवसर पर सवर्णो के द्वारा बजाया जाता है.  यह पूरी तरह से पर्वतीय वाद्य है जो ताम्बे से बना हुआ बेलनाकार है जिसकी गोलाई दो से तीन इंच और लम्बाई 36 इंच तक होती है.

स्त्रोत: लोककला संस्कृत एवं निष्पादन केन्द्र,हेमवती नंदन गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय, श्रीनगर

बांसुरी –  गढ़वाल की एक लोक कथा के अनुसार जीतू बगड़वाल जो बहुत अच्छा बांसुरी वादक था उसकी बांसुरी की धुन पर अछरियां(परियां) मुग्ध हो गयी और उसका हरण करके उसे अपने साथ ले गयी. लोकगीतों के अनुसार जीतू बगड़वाल की बांसुरी को नौसुर्या (नौसुरी) बांसुरी कहा जाता है (नरेन्द्र  सिंह नेगी & जीतू बगड़वाल)9, जबकि संगीत के अनुसार सुर केवल सात ही माने गए हैं. बाँसुरी गढ़वाल का एक प्रसिद्ध वाद्य है. बांसुरी मोटे रिंगाल या बांस से बनायी जाती है. बाँसुरी की लोकप्रियता इस बात से सिद्ध होती है कि आज के समय में जितने भी गढ़वाली गीतों का निर्माण होता है उनमें सभी गीतों में लगभग बांसुरी का उपयोग किया जाता है.  पहले ये केवल गाय और भेड़-बकरी पालने वालों का वाद्य हुआ करता था जो अपने पशुओं को चराते समय जंगलों में इसका वादन किया करते थे.

स्त्रोत: उत्तरांचल के लोक वाद्य (जुगल किशोर पाठशाली)

अलगोजा- अलगोजा भी एक ऐसा वाद्य है जो गढ़वाल के अलावा बहुत से क्षेत्रों में प्रचलित है सबसे ज्यादा राजस्थान में इसका प्रयोग देखा गया है. अलगोजा को रामसोर के नाम से भी जाना जाता है. “दो बांसुरियों को साथ-साथ मुँह में लेकर बजाने पर यह बांसुरी से अलगोजा अथवा रामसौर कहा जाता है”(Maithani, 2006, p. xx)10.

स्त्रोत: http://www.merapahad.com/musical-instruments-of-uttarakhand/

मशकबाजा- मशकबाजा आंग्ल भाषा में “Bagpipe”के नाम से जाना जाता है. “यह मूलतः स्कॉटलैंड का वाद्य है जो अंग्रेजी सेना के माध्यम से उत्तरांचल में पहुंचा”(Baluni, 2005, p. xx)11. यह वाद्य गढ़वाल में इतना प्रचलित हुआ कि अब यह यहाँ का लोकवाद्य जैसा प्रतीत होता है यह विवाह इत्यादि के अवसर पर गढ़वाल में बजाया जाता है. इस वाद्य में एक चमड़े के थैले में चार प्रकार की नलियां लगी होती हैं जिसमें एक नाली बीन कहलाती है इसमें शहनाई के सामान छिद्र होते हैं. चमड़े के थैले में हवा भर के बीन को मुहँ में रखकर बजाया जाता है बाकी की तीन नलियां कंधे पर टंगी होती हैं. मुख्यतः यह स्वर वाद्य है.मशकबीन को गढ़वाल लोक वाद्यों में ना गिन के प्रमुख वाद्यों में गिना जा सकता है. 

स्त्रोत: लोककला संस्कृतएवं निष्पादन केन्द्र,हेमवती नंदन गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय, श्रीनगर
  • तत वाद्य –तत वाद्यों का उपयोग गढ़वाल के लोक वाद्यों में सबसे कम प्रयोग किया जाता है.

सारंगी- सारंगी गढ़वाल का लुप्तप्रायः वाद्य है अब इसका उपयोग नहीं किया जाता है. पुराने समय में यह वाद्य व्यवसायिक गायकों का होता था जैसे बाद्दी गायकों का. गढ़वाल में इसे सारंगी या सरंगी के नाम से जाना जाता है. वर्तमान सारंगी से इसका आकर छोटा होता था बाकि बाज और तरब के तारों की संख्या सामान होती थी.

स्त्रोत: https://umjb.in/gyankosh/sarangi
  • एकतारा- यह वाद्य यहाँ के नाथ पंथ के योगियों के द्वारा बजाया जाता है. इस वाद्य को बनाने के लिए लौकी से तुम्बी का निर्माण किया जाता है तथा तुम्बी पर चमड़े को मढ़ा जाता है तुम्बी पर एक लकड़ी का डांड लगाकर उसमें खूंटी के सहारे तार को लगाया जाता है. और उस तार को स्वर पे मिलाकर इसका वादन किया जाता है.
स्त्रोत:https://umjb.in/gyankosh/ektara

निष्कर्ष:

गढ़वाल के वाद्यों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इनकी उपयोगिता के आधार पर अगर इनका क्रम देखा जाये तो इस प्रकार होगा- यहाँ सबसे ज्यादा अवनद्ध वाद्यों का उपयोग किया जाता है, जैसे ढोल-दमाऊं,डौंर, हुड़का. इसके पश्चात् घन वाद्यों का स्थान है, जिसमें महत्वपूर्ण वाद्य हैं काँसे की थाली,घंटा,घड़ियाल तथा फिर आते हैं सुषिर वाद्य जिनमें आती है बांसुरी,रणसिंघा,तुरी, भंकोरा इत्यादि  और सबसे अंत में तार वाद्य जिनके प्रयोग ना के बराबर हैं जैसे सारंगी,एकतारा. इस प्रकार गढ़वाल के लोकवाद्यों का क्रम निर्धारित किया जा सकता है.

किसी भी क्षेत्र के लिए उसका लोकसंगीत उसकी पहचान का काम करता है. उसी प्रकार से गढ़वाल का लोकसंगीत भी उसकी पहचान को दर्शाता है. लोकसंगीत में वाद्यों का योगदान अपने में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है. कोई भी संगीत वाद्यों के बिना पूर्ण नहीं होता है फिर वो लोकसंगीत हो या शास्त्रीय या अन्य कोई संगीत. उसी प्रकार से गढ़वाल के संगीत में भी वाद्यों का योगदान अनुपम है बल्कि कुछ वाद्य इतने पवित्र हैं कि हर शुभ कार्य को करने से पहले उनसे ही शुरुआत की जाती है जैसे ढोल-दमाऊं ये दोनों ही गढ़वाल के वाद्यों में सबसे पहला स्थान रखते हैं इन दोनों के बिना गढ़वाली लोकसंगीत की कल्पना नहीं की जा सकती. वहीं कुछ ऐसे वाद्य हैं जो लोक परंपरा के ना होकर गढ़वाली लोक संगीत में इस तरह रच बस गए हैं जो अब लोक वाद्य ही प्रतीत होते हैं जैसे मशकबीन. और तीसरे कुछ ऐसे वाद्य जो कतिपय विलुप्त हो चुके हैं और कुछ होने की कगार पर हैं जैसे -सारंगी, नगाड़ा,एकतारा इत्यादि. इन वाद्यों के विलुप्त होने का कारण यह है कि हमारी संस्कृति की नयी पीढ़ी इस लोकविधा को अपनाना नहीं चाहती. उनका ध्यान ज्यादातर उस संगीत पर ज्यादा है जिसका प्रभाव क्षणिक भर का होता है और जो केवल मनोरंजन की दृष्टि से तैयार किया जाता है. जिसके कारण इस विधा का हस्तान्तरण कम हो गया और कई वाद्य विलुप्त हो गए. वाद्यों के संरक्षण के कार्य भी सरकार के द्वारा किये गए किन्तु वे उतने सफल नहीं हुए और ये तब तक संभव नहीं हो पायेगा जब तक हमारी नयी पीढ़ी अपने लोकसंगीत के महत्त्व को नहीं समझ पायेगी और इसे सीखने की इच्छा अपने अंदर जागृत नहीं करेगी. वर्तमान समय में लोक वाद्यों का प्रयोग गढ़वाल के शहरी क्षेत्रों में विलुप्त हो गया है और कहीं है भी तो नाममात्र और दिखावे के तौर पर लेकिन गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्रों में ये विधा अभी भी साँस ले रही है और इनके संरक्षण का श्रेय भी इन्ही क्षेत्रों को जाता है