रिद्धिमा सिंह
शोधार्थी, संगीत संकाय
दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
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सारांश
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत अपनी परंपरा व संगीत शैलियों के लिए प्रसिद्ध है, जिन्हें घराने के रूप में जाना जाता है. घराना, एक व्यापक संगीत संबंधी विचारधारा को इंगित करता है. यह संगीत के शिक्षण, विचारधारा, प्रदर्शन व प्रशंसा को प्रभावित करता है. 19वीं सदी से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के घरानों द्वारा ख़्याल गायन शैली समृद्ध हुई. इसी ख़्याल शैली के कुछ घराने जैसी- ग्वालियर, जयपुर, आगरा, किराना आदि प्रसिद्ध हुए. इन सभी घरानों का संदर्भ बिंदु ग्वालियर घराने को माना जाता है. ग्वालियर घराने की गायकी में ख़्याल के साथ-साथ टप्पा गायन भी प्रचलित है. टप्पा गायन शैली में मुर्की, कण, खटका व छोटी-छोटी तानों का प्रयोग किया जाता है. इसी शैली का ख़्याल गायन शैली से सुंदर सम्मिश्रण कर ‘टप्पख़्याल’ गायन शैली का उद्भव हुआ. ग्वालियर घराने में ‘टप्पा‘ एवं ‘टप्पख़्याल’ शैलियाँ अधिक प्रचलित रहीं व इस घराने के कई प्रख्यात कलाकारों ने इन गायन शैलियों को शिखर तक पहुँचाया. प्रस्तुत शोध पत्र द्वारा ग्वालियर घराने में टप्पा एवं टप्पख़्याल शैलियों का प्रचलन एवं गायकी पर प्रकाश डाला गया है. टप्पे पर आधारित किताबें, लेखन, अन्य शोध पत्र एवं ध्वनि मुद्रण, प्रस्तुत शोध पत्र के स्रोत हैं.
महत्वपूर्ण शब्द: ग्वालियर घराना, टप्पा, टप्पख़्याल, गायन शैली
हिंदुस्तानी संगीत में प्राचीन काल से प्रचलित रही विभिन्न गान विधाओं में टप्पा एक चमत्कारयुक्त आकर्षक गान शैली है. टप्पा का उद्भव पंजाब के लोक संगीत से माना जाता है. प्रत्येक प्रांत के लोकसंगीत की अपनी एक विशेषता होती है व कालानुसार किसी भी क्षेत्र में बदलाव आना भी स्वाभाविक है. इसी के फलस्वरूप पंजाब में प्रचलित लोकसंगीत- टप्पों की रचनाएँ व गायकी शास्त्रीय संगीत में अंतर्भूत की जाने लगीं. इस मिश्रण से एक नई गायन शैली की उत्पत्ति हुई जिसे संगीत क्षेत्र में अद्भुत माना गया है. ग्वालियर घराने में ख़्याल गायकी अपने लोकप्रियता के शिखर पर होने के पश्चात भी प्रसिद्ध कलाकारों ने टप्पा शैली को न केवल अपनाया बल्कि इस शैली का विस्तार किया तथा इसे शास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत स्थान दिया.
टप्पा एवं टप्पख़्याल गायन शैलियों की परंपरा –
टप्पा शब्द की उत्पत्ति के विषय में कुछ विद्वानों का मानना है कि ‘टप्पा’ शब्द ‘टप्प’ धातु से निर्मित है. “यह पंजाब के ऊँट हांकने वालों द्वारा गाई जाने वाली लोकधुनों से प्राप्त किया गया है” (खोत 2010, पृ 113).
फ़ारसी भाषा में ‘टिप्पा’ शब्द प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ भी टप्पे की अर्थात् चंचल व द्रुत चाल. मीलों लंबे फैले विस्तृत नख़लिस्तान व रेगिस्तानों में ज़मीन की दूरी का पैमाना एक टप्पा व दो टप्पा ज़मीन के रूप में प्रचलित था. टप्पा का मूल रूप पंजाब व सिंध के लोक संगीत से सम्बन्ध रखता है. यह पंजाब व सिंध के ऊँट चालकों का गायन माना जाता है. इन्ही लोक धुनों से प्रभावित होकर, ग़ुलाम नबी शोरी द्वारा टप्पा गायन शैली को विकसित व प्रचलित किया गया.
टप्पा गान कठिन होता है. इसको गाने के लिए विधिवत अभ्यास से गले को एक विशिष्ट प्रकार से तैयार करना पड़ता है. “टप्पे का चलन मुख्यतः टीप स्वरों में ही होता है व पंजाब के प्रायः सभी लोकगीत विशेषकर हीर, टीप स्वरों में ही गाये जाते हैं” (पैंतल 2014, पृ 53).
“शाहजहाँ और औरंगज़ेब के शासन काल में फ़क़ीरूल्लाह ने छंद के परिचय के बाद ‘डफ़ा’ का उल्लेख किया है. डफ़ा के समस्त लक्षण टप्पा के समान ही हैं व इसके उद्भावक पंजाब के क़व्वाल बच्चों को माना जाता है. पंजाब में वर्तमान समय में डफ़ा सुनने को नहीं मिलता” (खोत 2010, पृ 113) .‘डफ़ा/डपा’ के सभी लक्षण टप्पा के समान होने के कारण ‘टप्पा’ शैली को ‘डफ़ा’ का ही रूप माना जा सकता है. प्रो चिंचोरे के अनुसार “उछलकूद से भरपूर टप्पे का गायन स्थिरता से दूर होने के कारण इसकी स्फुरित तानें असंभव को संभव कराने की होड़ में लगी रहती हैं” (श्रीवास्तव 2010, पृ 112).
टप्पा गायकी जटिल व बारीक तानों के लिए विशेष रूप से प्रचलित है. ऊर्जावान व गतिशील तानों का प्रयोग व असमान लयबद्ध उच्चारण टप्पा गायन शैली की विशेषता है. इसमें प्रयुक्त ‘छूट की तान’ अरब संगीत की भाँति प्रतीत होती है. इस तान को खटके द्वारा आरम्भ किया जाता है. टप्पा का साहित्य हीर, राँझा, प्रेम अथवा विरह आदि विषयों पर आधारित होता है. इसमें खमाज, काफी, भैरवी, झिंझोटी, तिलंग, सिंदूर, देस आदि रागों का प्रयोग अधिक किया जाता है, जिनमें तानों व मुर्कियों का काम सुविधापूर्वक किया जाता है. इन रागों द्वारा टप्पे के साहित्यिक विषय को दर्शाया जाता है. भारतीय संगीत की अन्य गायन शैलियाँ जैसे ध्रुपद व ठुमरी का प्रभाव जिस तरह ख़्याल पर पड़ा, उसी प्रकार टप्पा का प्रभाव भी ख़्याल में देखा जा सकता है.
“लखनऊ के अंतिम नवाब, वाज़िद अली शाह के समय में ख़्यालों को टप्पा अंग से गाने का भी प्रचलन रहा जिन्हें ‘टप्पख़्याल’ कहा जाता है” (धर्माधिकारी 1998, पृ 86). ख़्याल व टप्पा की विशेषताओं के सम्मिश्रण द्वारा रचित बंदिशों को ही टप्पख़्याल कहा गया. ख़्याल गायन के घराने, जैसे – ग्वालियर व बनारस में टप्पा अंग से ख़्याल को गाने का प्रचलन है. टप्पख़्याल चंचल प्रकृति का गीत प्रकार है. टप्पख़्याल की रचनाओं में छोटी- छोटी दानेदार एवं पेंचदार तानें, खटका, मुर्की, जमजमा का सुंदर प्रयोग होता है. मुख्यतः सरल अथवा अलंकारिक तानों को एक ही सूत्र में रखते हुए पूर्वांग अथवा उत्तरांग में बिना खंडित किए प्रयोग किया जाता है जो टप्पा अंग के प्रयोग का परिचायक है. “टप्पख़्याल का अविष्कार प्रतिष्ठित गायक व उस्ताद महबूब खान के पुत्र, उस्ताद इनायत हुसैन खाँ द्वारा किया गया” (धर्माधिकारी 1998, पृ 86). इन्होंने लोकसंस्कृति को अपनाकर उसे शास्त्रीय संगीत में ढालकर ‘टप्पख़्याल’ की रचना की. ख़्याल व टप्पा के उद्भव के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं. कुछ विद्वानों का मानना है कि ख़्याल का अस्तित्व टप्पे से पूर्व का है, परंतु इसके विपरीत यह भी माना गया है कि ख़्याल गायन का विकास अन्य विधाओं की कुछ विशेषताओं को ग्रहण कर हुआ. जैसे- मींड व गमक ध्रुपद से, बोल बाँट ठुमरी से व तान टप्पे से ली गई.
ग्वालियर घराने में टप्पा एवं टप्पख़्याल-
भारतीय संगीत के क्षेत्र में ग्वालियर घराने व यहाँ के राज दरबारों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है. ग्वालियर घराने की गायकी अष्टांग प्रधान कही जाती है. लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिद अलि शाह के समय में टप्पा एवं टप्पख्याल का अधिक प्रचलन रहा. “इसके पश्चात् इन गायन शैलियों का प्रचार-प्रसार ग्वालियर के उस्ताद नत्थन पीर बख्श ने किया. ग्वालियर घराने के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार हद्ददू खान, हस्सु खान और नत्थू खान हुए” (बांगरे 1995, पृ 196). उनके शिष्य ख्याल और ध्रुवपद में निपुण थे. ख्याल के बाद वे अपने विवेक के अनुसार अष्टपदी, भजन और टप्पा प्रस्तुत करते थे. इसका परिणाम यह हुआ कि ख्यालों की सुंदरता बढ़ाने के उद्देश्य से ख्याल गायकी के तानों को टप्पों के तानों के साथ मिलाया गया. हस्सू खाँ के शिष्य देवजी बुवा परांजपे हुए जो टप्पा गायन में प्रवीण थे. इन्ही से महाराष्ट्र के बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर जी ने टप्पा गायन की तालीम ली. बालकृष्ण बुवा इचलकरंजीकर के शिष्य अंतु बुवा, यशवंत बुवा, मिराशी बुवा व विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने महाराष्ट्र में टप्पा गायन को उच्च स्तर तक पहुँचाया. “ग्वालियर घराने की अन्य गुरु-शिष्य परंपरा में निसार हुसैन खाँ (हद्दू-हस्सू खाँ के भतीजे) ने टप्पा गायन की परंपरा अपने शिष्यों- श्री शंकरराव पंडित, रामकृष्ण बुवा व अन्य कई शिष्यों को सिखाई. श्री शंकरराव पंडित के पुत्र एवं शिष्य श्री कृष्णराव शंकर पंडित ने इस परंपरा को अपने सुपुत्र श्री लक्ष्मण राव पंडित, श्री बाला साहब पूँछवाले व श्री शरदचंद्र अरोलकर को सिखलाईं” (खोत 2010, पृ 115). इस प्रकार ग्वालियर घराने में ख़्याल गायन के साथ-साथ टप्पा गायन की भी तालीम परंपरागत रूप से चली आ रही है.
ग्वालियर घराने के गायक ध्रुपद और ख्याल में निपुण थे. इस घराने के गायकों ने टप्पा की कठिन और चमत्कारी गायकी को हावी नहीं होने दिया बल्कि टप्पे में विलाम्बित व धीमी गति का समावेश किया. दानेदार छोटी और फुर्तीली तान, शब्दों की व्यवस्था और एकल लयबद्ध चक्र में स्थायी का समापन इस घराने के टप्पा गायन का हिस्सा बन गया. “ग्वालियर घराने में टप्पा गायन शैली के गीत में न्यूनता रहती है. अलापचारी व सपाट तानों का प्रयोजन भी इसमें नहीं होता है. इस घराने के टप्पों में पेंचदार, अवरोहात्मक दानेदार तानें एवं खटका मुर्की की प्रधानता रहती है. इस घराने के टप्पों की तानों की अन्य विशेषता भी है जिसमें विभिन्न रीतियों का विशिष्ट रूप से प्रयोग किया जाता है जैसे गुथाव, फंदा- रीति जिसे ‘टप्पा का वान/बान’ कहा जाता है. शोरी मियाँ की रचना इस बान का उद्भावन है” (श्रीवास्तव 2010, पृ 112). इसके अंतर्गत तानों में लड़ी रीति, फंदा रीति तथा खड्डा रीति जैसी विशेषताएँ दिखाई देती हैं. सपाट तानों का प्रयोग इस घराने के टप्पा गायकों द्वारा मुख्य रूप से किया जाता है. “इस घराने में टप्पा शब्द की ही भाँति शब्द व स्वर दोनों को ही टापते हुए चलते हैं. डेढ़-डेढ़ असमान दानों में टप्पे के शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं. इसे गाना अत्यंत कठिन होता है” (बांगरे 1995, पृ 32).
टप्पे में राग नियमों का पालन नहीं किया जाता. साहित्य एवं काव्य का स्थान भी इसमें नगण्य होता है. पं. भातखंडे ने भातखंडे संगीत शास्त्र में टप्पे का वर्णन इस प्रकार किया है – “ख़्याल की ही कतिपय तालों में बहुदा टप्पे गाये जाते हैं. प्राचीन राग-रागिनियों में से भैरवी, ख़माज, चैतागिरी, कालिंगड़ा, देश तथा सिन्दूरा इत्यादि रागिनियों में टप्पे होते थे. इन रागों का विस्तार संक्षिप्त होता है व इन गीतों की गति क्षिप्र तथा क्षुद्र प्रकृति होने से इन्हीं के अवलंब से पद्य रचना करनी पड़ती है” (जौहरी 2012, पृ 98). इसी प्रचलित टप्पा गायन शैली की विशेषताओं का सम्मिश्रण प्रसिद्ध ख़याल गायन में कर टप्पख़्याल की रचना की गई. टप्पख़्याल का प्रचलन विभिन्न घरानों जैसे- ग्वालियर, बनारस व रामपुर में है. ग्वालियर घराने में प्रचलित टप्पख़्यालों में फिरत व छूट की तान स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. टप्पख़्यालों में टप्पा की दानेदार व खनकदार तानों के प्रयोग के साथ ही ख़्याल गायन शैली का ठहराव, स्वर लगाव व सहजता जैसी विशेषताएँ सम्मिश्रित होती हैं. टप्पा गायकी से विकसित होने के कारण अधिकांश टप्पख़्यालों की भाषा पंजाबी है. टप्पा एवं टप्पख़्याल की रचनाओं में सामान्यतः श्रृंगार रस का चित्रण हुआ है. परंतु कुछ टप्पख़्याल ऐसे भी हैं जिनमें भक्ति रस का भी प्रयोग हुआ है जैसे- राग यमन में- ‘तू साहेब’. ग्वालियर घराने में ख़्याल गायन के साथ-साथ गाने के अंत में टप्पा एवं टप्पख़्याल गाने की प्रथा है. “घरानेदार गायकी अनुसार पं. कृष्णराव शंकर पंडित एवं राजा भैया पूँछवाले जी की गायन परंपरा में उनके शिष्यों को ख़्याल के साथ-साथ टप्पा गायन का भी प्रशिक्षण दिया. पं. राजा भैया पूँछवाले जी के शिष्यों में वसंतराव राजुरकर, लक्ष्मण तेलंग, बालासाहब पूँछवाले, पंडित चिचोरे व दत्तु भैया जैसे नाम प्रमुख रहे” (बांगरे 1995, पृ 25).
ग्वालियर घराने में प्रचलित टप्पा एवं टप्पख़्याल की कुछ रचनाएँ-
टप्पा –
1. राग काफ़ी (पंजाबी ताल)
स्थाई- हो मियाँ जाने वाले तवाणु
अल्लाह दी क़सम फेरी आ नैनवाले .
अंतरा – आउंदा जाउंदा तुसी मन ले जाउंदा
आवो सजन गले लग जा छड्ड शान रे मतवाले .. (तैलंग 1994, पृ 25)
2. राग खमाज (पंजाबी ताल)
स्थाई- चट दे चट कलाई वे
ऐसी जालम जती ज़ोरा जोरी .
अंतर- मालक ता दिल नूं, शोरी नूं छलक दे,
मैं रमयां नज़र दिया रे खट दे .. (तैलंग 1994, पृ 34)
टप्पख़्याल –
1. राग हमीर (ताल- तिलवाड़ा मध्यलय)
स्थाई- जाग रहे सगरी रतियाँ
तुम्हरे दरस की प्यासी
तरपत जिया मोरा .
अंतरा- राह तकत हूँ निस दिन तुम्हरी
बिरम रहयो परदेसवा
ना जानूं कौन तिरिया
मोहि लियो मन तोरा ..
2. राग काफ़ी (अद्धा-ताल)
स्थाई – माधो मुकुंद मुरारी
कुंज बिहारी तन मन हारी
अखिल जगत के तुम हितकारी
अन्तरा- नृत करत बनवारी
गोकुल जावत गैया चरावत
बाँसुरी की धुन पर पाएँ मतवारी
निष्कर्ष:
संगीत कला को श्रेष्ठता के पद पर पहुँचाने में ग्वालियर घराने के संगीतज्ञों व आश्रय दाताओं का बड़ा योगदान रहा है. मुख्य रूप से ख्याल का घराना होने के साथ ही ग्वालियर घराने में टप्पा गायन का विशेष प्रचलन रहा है. ख्याल गायन की रागदारी व भराव के साथ टप्पा में निहित चंचलता, गले की तैयारी व बारीक तानों का सम्मिश्रण कर टप्पख्याल बनाया गया. ग्वालियर घराने ने टप्पा और टप्पख्याल जैसी शैलियों का प्रचार-प्रसार करके इस विधा को एक व्यापक पहचान दी है. टप्पा की गले की विशिष्ट तैयारी, बारीक ताने और त्वरित गतियाँ इसे और भी कठिन बना देती हैं, जिसके लिए विशेष प्रकार का प्रशिक्षण और निरंतर रियाज़ की आवश्यकता होती है. टप्पा व टप्पख्याल की गूढ़ तकनीकों को समझाने और गायक को इस शैली में परिपक्वता की ओर ले जाने के लिए एक अनुभवी गुरु का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है. वर्तमान समय में ग्वालियर घराने के कई कलाकार इस शैली को आगे बढ़ा रहे हैं जिनमें पं. लक्ष्मण कृष्णराव पंडित, विदुषी शाश्वती मंडल, डॉ जयंत खोत, विदुषी शुभदा पराडकर, विदुषी मीता पंडित का नाम मुख्य रूप से प्रचलित है.