विभा पाण्डेय (शोध छात्रा)
प्रो0 प्रेम कुमार मल्लिक (शोध निर्देशक)
संगीत एवं प्रदर्शन कला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
E-mail- vibhaluddur@gmail.com
Orcid ID- 00009-0002-3504-4196
सारांश
ध्रुपद गायन शैली भारतीय शास्त्रीय संगीत की वर्तमान में प्रचलित सबसे प्राचीनतम शैली के साथ ही शास्त्रीय संगीत का मूल आधार भी हे, क्योंकि इस शैली में हजारों वर्षों पूर्व वैदिक कालीन संगीत का सर्वत्र प्रभाव दिखाई देता है. भारतीय संगीत में प्रचलित विभिन्न गीतशैलियों में ध्रुपद का स्थान इसकी उच्चता, शुद्धता एवं गम्भीरता के कारण इसकी तुलना सूर्य से की जाती है. जो स्थान वर्तमान में ख्याल गायन शैली को प्राप्त है वहीं स्थान मध्यकाल में ध्रुपद गायन शैली को प्राप्त था. अतः संगीत के प्रत्येक अध्ययनकर्ता के लिए ध्रुपद गायन जैसी आधारभूत गायन शैली को जानने की नितान्त आवश्यकता है. इसी प्ररिप्रेष्य में प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से यह अवगत कराने का प्रयास किया गया है कि ध्रुपद अपने किन-किन उतार-चढ़ाओं से गुजरा. उसे अपना स्थान बनाये रखने के लिए किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तथा वर्तमान में ध्रुपद के विकास हेतु क्या प्रयास हो रहे हैं जिसे संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है.
बीज शब्द- भारतीय शास्त्रीय संगीत, ध्रुपद, गायन शैली, ध्रुपद समारोह, घराना
शोध प्रविधि – ग्रन्थावलोकन प्रविधि, विश्लेषणात्मक प्रविधि एवं द्वितीयक स्रोतों के माध्यम से तथ्यात्मक सामग्री संकलित कर अध्ययन किया गया है.
शोध उद्देश्य – प्रस्तुत शोध-पत्र लेखन का मुख्य उद्देश्य ध्रुपद जैसी समृद्ध गायन शैली के महत्व को उजागर करना है अपनी विकास यात्रा में यह किन-किन चरणों से होकर गुजरा इसके महत्व को उजागर करना है.
प्रस्तावना –
आधुनिक परिवेश में ख्याल का प्रचार-प्रसार सर्वाधिक हुआ है एवं उन पर कई शोध पत्र भी प्रकाशित हुये हैं किन्तु ध्रुपद का विकास कितना हुआ है? सरकार का, अकादमियों का ध्रुपद सम्मेलनों, ध्रुपद समारोहों शिक्षण संस्थाओं, आकाशवाणी एवं दुरदर्शन का इस शैली के विकास में क्या भूमिका रही है? क्या आज ध्रुपद पुनः लोकप्रिय हो रहा है? किन्तु इसकी गति बीच में अवरूद्ध कैसे हुई इसे जानने के लिए धुपद के विकास को उद्भव काल से वर्तमान तक समझना आवश्यक है.
विषय प्रवेश-
ध्रुपद शब्द संस्कृत भाषा के ‘ध्रुवपद’ का ही हिन्दी रूप है. जो दो शब्दों ‘ध्रुव‘ एवं ‘पद‘ से मिलकर बना है. ‘ध्रुव’ का अर्थ स्थिर तथा ‘पद’ शब्द गीत की पंक्ति, चरण अथवा तुक का बोध करवाता है. अतः जिस गीत की एक विशिष्ट चाल स्थिर, धीमी अथवा गाने की पद्धति ठहरी हुई है, तथा जो अपरिवर्तनीय है उसे ही विद्वानों ने ‘धुवपद’ कहा है.
1. मुहम्मद करम इमाम के अनुसार- ध्रुवपद में चार-पाँच चरण होते हैं और दो चरण भी होते हैं. चरण का अर्थ ‘तुक’ है, प्रथम तुक को स्थल कहते हैं जो जनसाधारण में ‘आस्ताई कहलाती है, दूसरी तुक को अन्तरा, तीसरी तुक को भाग और चौथी तुक को आभोग कहते हैं. तुक को खंड भी कहा जाता है.1
ध्रुपद के चार भाग हैं जो क्रमशः स्थायी, अन्तरा संचारी एवं आभोग है. इसकी गायन शैली के स्वरूप को भी चार भागों में विभक्त किया गया जो नोम-तोम, बंदिश, लयकारी तथा उपज के क्रम में है. शास्त्रीय भाषा में इन्हें क्रमशः रागालप्ति, गीत, लय वैचित्र्य और भंजनी रूपकालप्ति कह सकते हैं. ध्रुपद गायक को प्राचीन काल मे कलावंत कहा जाता था.
ध्रुपद के वर्ण्य विषय मुख्यतः ईश्वरीय उपासना एवं उनके गुणों का गान है, ये स्तुतिपरक है. राग का शुद्ध रूप एवं स्पष्ट शब्द उच्चारण इसकी विशेषता है.
ध्रुपद की बानियां –
ध्रुपद की विभिन्न शैलियों को बानियां कहा जाता है. बानियां कुल चार है एवं इन्हीं से वर्तमान ध्रुपद के घरानों का भी प्रादुर्भाव हुआ.
1.गोबरहार अथवा गोड़हार बानी- इस बानी का सम्बंध तानसेन से जोड़ा जाता है. यह शुद्धा गीति से मिलती जुलती है अतः इस बानी को सच्चे स्वरों में और बहुत सुरीले ढंग से गाने के साथ ही इसमें मीड़ का भी अधिक प्रयोग होता है. इसे राजा की उपाधि प्राप्त है.2
2. डागुर बानी- इसका सम्बन्ध बृजचन्द्र से माना जाता है. इसे मंत्री की उपाधि प्राप्त है. इस वाणी के ध्रुवपद में गौरहारी की अपेक्षा शब्द बहुत होने के कारण आस व मींड का काम कम होता है. और विलंबित तथा मध्यलय में गाया जाता है.3
3. खण्डार बानी- इस बानी का श्रेय राजा सम्मोखन सिंह को जाता है. यह बानी बेसरा गीति के समान है इसे सेनापति उपाधि प्राप्त है. कहा जाता है इसकी चमक और तेज धार से प्रेरित होकर ही इसे खण्डार बानी कहा गया अतः इसमें तेज लय वाली गमक का प्रयोग होता है. खण्ड का अर्थ विभाग होता है अतः इसमें विभागीकरण का भी पालन किया जाता है.4
4. नौहार बानी- इसका सम्बंध ‘श्रीचन्द’ से है. यह बानी गौड़ी गीति के समानार्थी है. डागर वाणी की अपेक्षा इसमें अधिक जमजमा, गमक, छूट इत्यादि अलंकारों का अधिक परिणाम में व्यवहार होता है.5
ध्रुपद शैली का उद्भव एवं विकास –
भारतीय शास्त्रीय संगीत में यदि हम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ध्रुपद गायन शैली के संदर्भ में दृष्टि डालें तो इस शैली से पूर्व ध्रुवा एवं प्रबन्ध गीतों को गाने का प्रचलन था, तत्पश्चात् मध्यकाल में ध्रुपद गायन शैली का प्रादुर्भाव मध्यकाल में ध्रुपद गायन शैली का प्रादुर्भाव हुआ. ध्रुपद शैली की विकास यात्रा को आरम्भ करने से पूर्व हमें इसके मूल स्रोत ध्रुवा गान एवं प्रबन्ध को संक्षेप में समझना होगा.
ध्रुवा गान- भाषा स्वर, गति इत्यादि आवश्यक व्यंजक तत्वों को लेकर ‘ध्रुवा’ की सृष्टि हुई आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार ‘ध्रुवा गीतों’ का कार्य नाटक के विभिन्न प्रसंगो में भावात्मकता एकसूत्रता स्थापित करना है.6
‘ध्रुवा’- गीत्याधारो नियतः पदसमूहः.’7 (भ0ना0शा0, गा0सं02, अध्याय 6, पृ0 270)
नाट्य से सम्बंधी पांच प्रकार की ध्रुवाएं हैं- 1. प्रावेशिकी, 2. आक्षेपिकी, 3. नैष्क्रामिकी, 4. प्रसादिकी, 5. अन्तरा
ध्रुवा गान का प्रचलन ‘भरतमुनि’ (200 से 400 ई0 पू0) के काल में था. इसके पश्चात् मतंग (छठीं शताब्दी) तथा शारंगदेव (तेरहवीं शताब्दी) के काल में प्रबन्ध गान का प्रचलन आया.
प्रबन्ध- प्रबन्ध का शाब्दिक अर्थ ‘प्रबन्ध’ या ‘प्रकृष्ट रूपेण बन्धः’ अर्थात ‘धातु और अंगों की सीमा में बँधकर जोरूप बनता है, वह प्रबंध कहलाता है.8 प्रबंध की चार धातु, छः अंग तथा पांच जातियाँ हैं जो इस प्रकार हैं –
धातु- उद्ग्राह, मेलापक, ध्रुव एवं आभोग.
अंग- स्वर, विरूद, पद, तेनक, पातृ एवं ताल.
जातियां- मेदिनी, आनन्दिनी, दीपनी, भावनी और तारवती.
प्रबंधों का गायन संस्कृत में होता था. जयदेव की ‘गीत गोविन्द’ प्रबन्ध शैली में ही लिखी गई है.
मध्यकाल- 13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से प्रबन्धों का ह्रास शुरू हुआ एवं 15वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक वे लुप्त प्रायः हो गये. ‘प्रबन्धगान की किलष्टता, पद के असाधारण महत्व और पद की अपेक्षा गेय की और झुकाव इन सभी कारणों ने नई शैली को जन्म दिया. नवीन प्रकार की पद रचना, ताल योजना प्रबंध की अपेक्षाकृत संक्षिप्त और प्रबन्ध के पद की अपेक्षा गेय प्रधान स्वरूप लेकर ध्रुपद शैली का विकास हुआ.9
ध्रुपद के प्रवर्तक एवं प्रचार-प्रसारकर्ता –
ऐसा माना जाता है कि ग्वालियर नरेश राजा मानसिंह तोमर (1486 ई0 से 1516 ई0) कलाप्रिय नरेश थे. उनके राज्यकाल में उन्होंने विषम वातावरण से ढंके हुये राजनीतिक जीवन में भी भारतीय संगीत की आधारभूत गायकी ‘ध्रुपद’ को लोकप्रिय बनाकर उसका प्रचार-प्रसार किया. इस तरह वे ध्रुपद के प्रवर्तक एवं उन्नायक थे. ‘सहसरस कृत’ नायक बख्शू जो ‘ध्रुवपद’ शब्द का उल्लेख करने वाले प्रथम संगीत मर्मज्ञ थे इन्हीं के दरबार में थे. राजा मानसिंह ने अनेक संगीत विद्वानों की सहायता से कई संगीत ग्रंथों की रचना कराई, उन्होंने संगीत पर ‘मानकुतूहल’ ग्रंथ लिखा जिसमें पाण्डवीय ने उन्हें पर्याप्त सहयोग प्रदान किया. फकीरूल्ला ने ‘राग दर्पण’ के नाम से फारसी में इस ग्रन्थ का अनुवाद भी किया. द्विवेदी महोदय ने हिन्दी भाषा में ‘मानसिंह और मानकुतूहल’ नाम से टिका की. मध्यकाल में मुगलों के शासनकाल में अकबर से शाहजहाँ तक का काल ध्रुपद के विकास की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट था.
अकबर के शासनकाल में ध्रुपद (1556-1605 ई0)-
अकबर का काल ध्रुपद के लिए स्वर्णिम काल था, इस समय तानसेन जैसे ध्रुपदिऐं ने अपनी चमत्कारिक साधना से ध्रुपद को तो गौरवपूर्ण स्थान दिलाया ही इसके अतिरिक्त अकबरकाल के ही प्रसिद्ध हिन्दू संत और संगीतकार स्वामी हरिदास (1480 ई0-1575 ई0) पवित्र यमुना नदी के किनारे वृन्दावन में रहते थे. तानसेन इन्हीं के सुयोग्य शिष्य थे. तानसेन सहित इनके 8 शिष्यों में से प्रत्येक ने ख्याति प्राप्त की. संत हरिदास जी श्रेष्ट संगीतज्ञ एवं रचनाकार थे, इन्होंने ही ध्रुपद की बानियाँ चलाई जो आज विश्व भर में मान्य है. ध्रुपद के घराने इन्हीं बानियों से निकले एवं इन्हीं से गायन की अन्य शैलियों और वाद्य-शैलियों का विस्तार हुआ, जो वर्तमान तक अस्तित्वमान है.10
जहाँगीर के शासनकाल में ध्रुपद (1605 ई0 से 1627 ई0) –
जहाँगीर द्वारा सिंहासन संभालने के समय इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय ‘बीजापुर’ का शासक था जो एक कुशल वीणावादक एवं ध्रुवपदकार था. उसके द्वारा रचित ग्रंथ ‘किताब-ए-नवरस’ में उसने कई ध्रुपदों का संग्रह किया. उसका गुरू बख्तर खाँ कलावंत था. बख्तर खाँ जहांगीर संग रात्रिकालीन गोष्ठियों में सम्मिलित होकर उसे ‘किताब-ए-नवरस’ के ध्रुपद सुनाता था.
शाहजहाँ के शासनकाल में ध्रुपद (1625 ई0-1658 ई0) –
शाहजहाँ के शासन पश्चात् उसका पुत्र शाहजहाँ सिहांसन पर बैठा वह भी अत्यंत रसिक और मर्मज्ञ था. 1630 ई0 में शाहजहाँ के दरबार में उसके अनन्य प्रिय कलाकार जगन्नाथ कविराय थे जिसे तानसेन ने अपने पश्चात् सर्वश्रेष्ठ ध्रुवपदकार बताया. शाहजहाँ की मुद्रा से अंकित ध्रुपद खुशहाल खाँ लाल खाँ के पुत्र की कृति है. शाहजहाँ युग के सूफी कलाकार शेख बहाउद्दीन ने कवित्त, ख्याल, ध्रुवपद व तरानों की रचनायें की. शेख पीर मुहम्मद कत्तलिये ने शेख नसीरूद्दीन के संसर्ग में ध्रुवपद व तरानों की रचना की.
अकबर से शाहजहाँ तक का काल ध्रुपद के विकास हेतु स्वर्णिम काल था. जिसमें ध्रुपद की पर्याप्त उन्नति हुई किन्तु औरंगजेब के काल में ध्रुपद को अवनति ही प्राप्त हुई.11
औरंगजेब का शासनकाल (1658 ई0 से 1707 ई0) –
इसके शासनकाल में शुखहाल खाँ, बिस्मिल्ला, हयात, सरससेन, सुखी सेन और किरपा जैसे संगीत मर्मज्ञ थे जिसमें औरंगजेब ने खुशहाल खाँ को ‘गुनसमुंदर’ तथा किरपा को ‘मृदंगराय’ की उपाधि से नवाजा.12 कुछ कारणों से वह संगीत से नफरत करने लगा उसने राज्य के सभी संगीतज्ञों को गाने से मना कर दिया साथ ही सभी ग्रन्थों एवं वाद्य-यंत्रों को जला दिया जिससे यह अनुमान लगता है कि इसके काल में ‘ध्रुपद’ के लिये कोई विशिष्ट कार्य नहीं हुआ होगा.13
20 फरवरी 1707 ई0 में औरंगजेब के देहान्त पश्चात् शहजादा आलम ध्रुवपदकारों और गायकों का आश्रयदाता बना. उसके दूसरे के गद्दी पर बैठने के कारण वह मारा गया तत्पश्चात् मुहम्मद शाह रंगीले गद्दी पर बैठा, वह संगीत का अत्यंत रसिक था इसी कारण इतिहास में उसे रंगीले के नाम से जाना गया.
मोहम्मद शाह रंगीले (1719 ई0-1798 ई0) –
इसके दरबारी गायक सदारंग-अदारंग थे. सदारंग वीणावादन एवं ध्रुपद गायन में प्रवीण थे. निर्मल खाँ के पुत्र सदारंग के छोटे भाई खुसरों खाँ के पुत्र फिरोज खाँ ‘अदारंग’ को सदारंग की लड़की ब्याही थी.14 सदारंग को मुगल सम्राट जहांदारशाह के दरबार में आश्रय एवं सम्मान मिलने के पश्चात् रंगीले ने भी उसे अपने दरबार में सम्मान दिया. परन्तु वह युग ध्रुपद का ह्रास काल था क्योंकि रंगीले की श्रृंगारी प्रवृत्ति की संतुष्टि हेतु सदारंग जैसे महान ध्रुपदिये को भी अप्रासंगिक महसूस होकर ख्याल रचना करनी पड़ी, वे स्वयं कलावंत व वीणावादक थे परन्तु वे कव्वाल के शिष्य भी थे, उन्होंने ध्रुपद व कव्वाली के मिश्रण से ख्याल रचना की आधारशिला रक्खी जिससे शैनेः शैःने ख्याल की प्रचलित धारा की बाढ़ में ध्रुपद बह गया.15
मध्यकाल के इस सम्पूर्ण परिपेक्ष्य को देखते हुये हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इस काल में सैकड़ों वर्षों से संगीत को राज्याश्रय मिला. वह सामंतों और नरेशों की इच्छाओं अनुरूप अपना रूप बदलता रहा.
1800 ई0 के उपरांत आधुनिक काल का कालखंड प्रारम्भ होता है. इस समय मुगलों का आधिपत्य समाप्त होने के साथ ही अंग्रेजों का प्रभुत्व बढ़ने लगा. भारत वर्ष में कई आक्रमणकारियों ने अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहा जैसे- फ्रांसीसी, डच, पूर्तगाल एवं अंग्रेज आदि. किन्तु अंग्रेजों ने ही धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारतवर्ष पर आधिपत्य जमा लिया. इनका मुख्य लक्ष्य भारत पर शासन करना था. अतः इनसे संगीत के प्रचार-प्रसार अथवा आश्रय देने की आशा करना व्यर्थ ही था.
इस कालखंड में यदि हम ध्रुपद की स्थित पर विचार करें तो पायेंगे की यह काल ध्रुपद के विकास की दृष्टि से विशेष प्रकाशमान प्रतीत नहीं होता जिसके पीछे का मूल कारण ख्याल एवं अन्य विधाओं का वर्चस्व भी है. विगत 131 वर्षों में ध्रुपद की लोकप्रियता संकुचित पड़ गई. यहाँ तक जो घराने मूल रूप से ध्रुपद के लिये जाने जाते थे वह भी ख्याल गायकी की लोकप्रियता से प्रभावित होकर उसे अपनाने लगे तथा ध्रुपद गायकी धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगी. कुछ घराने बचे जो इस कठिन समय में भी ध्रुपद का संरक्षण कर रहे थे.
इसी बीच सन् 1875 ई0 में बाबा हरिबल्लभ के द्वारा जालंधर (पंजाब) में हरिबल्लभ संगीत सम्मेलन का आयोजन किया गया. हरबल्लभ संगीत सम्मेलन दुनियाँ में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का सबसे पुराना उत्सव है.16 यह प्रत्येक सर्दियों में संत बाबा हरिबल्लभ की समाधि दिवस पर मनाया जाता है. जिसमें प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से अनेकानेक कलाकारों (ख्याल, ध्रुपदियों) के गायन-वादन की प्रस्तुती होती है. भारत सरकार के पर्यटक विभाग द्वारा इसे राष्ट्रीय उत्सव में से एक घोषित किया गया है.
जहाँ 1800 ई0 से 1900 ई0 तक ध्रुपद के संवर्धन हेतु कुछ विशिष्ट प्रयास नहीं हुये वहीं संगीत की इस आपदस्थिती के अंधकार में प्रकाश पुंज भाँति दो सूर्य पं0 विष्णु दिगम्बर पलुस्कर एवं पं0 विष्णु नारायण भातखंडे संगीत क्षेत्र में अवतरित हुए. यद्पि इनसे पूर्व भी संगीत को जनसाधारण हेतु सुलभ बनाने के उद्देश्य से गुजरात के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ द्वारा वीणावादक उ0 मौला बख्श की सहायता से 26 फरवरी, 1886 में एक संगीत महाविद्यालय की स्थापना की गई, जिसे अब महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा के प्रदर्शन कला संकाय के रूप में जाना जाता है.17 किन्तु संगीत को सभी वर्गों तक पुनः प्रतिष्ठित इन्हीं दो ‘विष्णु-द्वय’ ने किया इन्होंने नई स्वरलिपि पद्धति संगीत की पुस्तकों एवं संगीत के प्रचार हेतु संगीत विद्यालयों की भी स्थापना की.
आधुनिक काल में ध्रुपद शैली का विकास-
ध्रुपद गायन की परम्परा निर्विवाद रूप से प्रमाणिक एवं कलाविदों द्वारा मान्य है. शताब्दियों से चली आ रही संगीत की इस प्राचीन ध्रुपद परम्परा ने कई उतार-चढ़ाव देखे. इस गायन शैली को लोग पुनः प्रतिष्ठित कर रहे हैं. शास्त्रीय दृष्टि से ध्रुपद की शिक्षा सर्वश्रेष्ट है और उसके मूल रूप को सुरक्षित रखना सांस्कृतिक दृष्टि से नितान्त आवश्यक है.
ध्रुपद की परम्परा नष्ट होने से बचाने हेतु आधुनिक काल में देश के सुविख्यात संगीत मर्मज्ञ स्वर्गीय लालमणि मिश्र द्वारा 1975 में, परफॉर्मिंग आर्ट विभाग, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्देशन में संगीत नाटक, अकादमी, दिल्ली के सौजन्य से बनारस18 में ध्रुवपद मेला प्रारम्भ हुआ. प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के समय 4-5 दिवस तक आयोजित होता है. यह समारोह इतना अधिक सफल हुआ कि वाराणसी की डॉ0 प्रेमलता शर्मा और काशी नरेश महाराज विभूति नारायण सिंह के सहयोग से यह आज भी चलता आ रहा है. इस वर्ष 5 मार्च से 8 मार्च 2024 को ध्रुपद मेले का 50वाँ अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन सकुशल सम्पन्न हुआ.
इसी क्रम में वर्तमान में मध्य प्रदेश द्वारा तत्कालीन सांस्कृतिक सचिव श्री अशोक बाजपेई के प्रयत्न 7 सितम्बर, 1981 में भोपाल में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित अलाउद्दीन संगीत अकादमी में ध्रुवपद केन्द्र की स्थाना की गई.19 यह केन्द्र ध्रुपद की उच्च शिक्षा और अन्वेषण का केन्द्र है.
इसके अतिरिक्त भी अन्य कई संस्थायें हैं जो ध्रुपद के विकास में अपना सराहनीय योगदान दे रही है. जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं- ध्रुवपद सोसायटी दिल्ली, इण्टरनेशनल ध्रुवपद धाम ट्रस्ट एवं रसमंजरी संगीतोपासन केन्द्र जयपुर, पं0 विदुर मल्लिक ध्रुपद अकादमी प्रयागराज, संस्कृति मंत्रालय म0प्र0 दिल्ली और पटना, ध्रुवपद संस्थान भोपाल इत्यादि.
ध्रुपद के विकास में अकादमियों का योगदान-
ध्रुपद गायको के लिये अकादमियों का योगदान भी सराहनीय है. संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली के पास घरानेदार ध्रुपद गायकों के समारोह गायन के रिकार्डस बहुत तादात में सुरक्षित है. संगीत नाटक अकादमी दिल्ली द्वारा विभिन्न शहरों में ध्रुपद समारोह आयोजित किये गये जैसे- 1982-83 में अम्बे जोगाई, महाराष्ट्र में विराट ध्रुवपद सेवा आदि.
अलाउद्दीन संगीत अकादमी भोपाल द्वारा ध्रुपद के प्रचार-प्रसार हेतु समय-सयम पर ध्रुवपद समारोह आयोजित किये जाते रहे है जैसे- 1982 में डागर सप्तक नाम से, ध्रुपद समारोह, 1982 में ही धमार-समारोह. बिहार संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1986 नवम्बर में ध्रुवपद समारोह, उ0प्र0 संगीत नाटक अकादमी द्वारा मथुरा मे 1982 में चन्दन जी शताब्दी ध्रुपद समारोह आदि.20
वर्तमान में आयोजित ध्रुपद समारोहों का विवेचन –
वर्तमान में 10-12 वर्षों से विभिन्न ध्रुवपद समारोहों का आयोजन विभिन्न संस्थाओं, सरकार, अकादमियों एवं संस्कृति मंत्रालय आदि द्वारा बढ़ा है, जो ध्रुवपद के प्रचार-प्रसार एवं ध्रुवपद के घरानों की कला के विकास की दिशा में सराहनीय कदम है.
ऊपर दिये गये समारोहों के अतिरिक्त इन्दौर में चुन्नी लाल पंवार स्मृति समारोह के नाम से पंवार बन्धुओं द्वारा ध्रुवपद समारोह आयोजित किया गया. इसके अतिरिक्त सन् 1986 नवम्बर में बिहार राज्य कला अकादमी द्वारा प्रथम ध्रुवपद समारोह के बाद 1989 में पटना में बिहार संगीत नाटक अकादमी द्वारा ध्रुवपद समारोह आयोजित किया गया.21 देश का श्रेष्ट समारोह ग्वालियर में आयोजित ‘तानसेन समारोह’ में भी कई वर्षों से ध्रुपद गायक आमंत्रित किये जाते हैं. जैसे- 1962 में पं0 लक्ष्मण भट्ट तैलंग, 1986 में पं0 सियाराम तिवारी एवं जिया मोहिउद्दीन डागर. 1990 में उदय भावलकर. जयपुर में 1982 से ध्रुवपद गायक बहराम खाँ डागर की स्मृति में प्रतिवर्ष आयोजित ध्रुवपद समारोह में देश भर के ध्रुपद गायकों एवं वादकों को आमंत्रित किया जाता है. इसके अतिरिक्त ग्वालियर, कलकत्ता, कानपुर, पूना, वराणसी, प्रयागराज आदि शहरों में भी विभिन्न ध्रुपद समारोह आयोजित हुए.
इसके अतिरिक्त प्रयागराज में पं0 विदुर मलिक संगीत समारोह का आयोजन प्रत्येक वर्ष उनकी स्मृति में किया जाता है. जिसका प्रथम कार्यक्रम ध्रुवपद धाम दरभंगा में फरवरी 2013 में हुआ. जिसके आयोजन का श्रेय पं0 विदुर मलिक ध्रुवपद अकादमी प्रयागराज को जाता है.
वर्तमान में देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी ध्रुपद का प्रचार-प्रसार बढ़ा है. जैसे- फ्रांस में 1985-86 में आयोजित ‘भारत महोत्सव’ जापान में भारत महोत्सव, ढ़ाका में मार्च 1989 में, जर्मनी सांस्कृतिक संस्थान में दिल्ली की ध्रुवपद सोसायटी द्वारा आयोजित ध्रुपद समारोह आदि.22
ध्रुपद के विकास में अकाशवाणी एवं दूरदर्शन का स्थान-
वर्तमान में ध्रुपद के प्रचार-प्रसार में आकाशवाणी एवं दूरदर्शन एक प्रबल माध्यम हैं. इनमें समय-समय पर ध्रुपद गायकों के कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं. दूरदर्शन द्वारा टी0वी0 सीरियल या टी0वी0 के कार्यक्रम में ध्रुपद का पृष्ठभूमि में भी प्रयोग परिलक्षित होता है. आकाशवाणी दिल्ली के संग्रहालय में जीवित एवं मृत्युगत गायकों का बहुमूल्य संरक्षण किया गया है जो आने वाली पीढ़ियों के लिये धरोहर है. आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा श्रोताओं के समक्ष अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में ध्रुपद गायक गायन हेतु आमंत्रित होते थे यह क्रम आज भी जारी है.
ध्रुपद के विकास में ध्रुपद के घरानों का योगदान –
ध्रुपद के विकास में घरानों का विशेष योगदान है. जैसा कि हमें पता है कि ध्रुपद के घरानों का उद्भव ध्रुवपद की चारों बानियों से ही हुआ है. प्रत्येक घरानों की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ हैं जो उसे दूसरे घरानों से प्रथक करती है. कुछ मुख्य घराने इस प्रकार है –
1. दरभंगा घराना – इसका सम्बंध ध्रुवपद की गौरहारी तथा खण्डार बानी से माना जाता है. गौरहारी बानी के समान लय का विलंबित प्रयोग तथा स्वर प्रयोग गंभीतायुक्त होता है. ‘दरभंगा घराने के युवा कलाकार श्री प्रशांत एवं निशांत मलिक का अनुसार इस घराने में खण्डारी बानी की तरह आलाप भी खंड में किया जाता है तथा जिस प्रकार पानी के धार को काटा जाता है, उसी प्रकार से गमकों के प्रयोग से स्वरों को काटा जाता है.23
आवाज लगाने का ढंग स्वर बढ़त करने का तरीका, नोम-तोम की आलापचारी, मंद्र सप्तक से मध्य सप्तक के बीच स्वर- लगाव एवं भीड़, गमक के तरीके और उत्कृष्ट लयकारी सशक्त आलापचारी एवं भिन्न मात्राओं से तिहाइयों का अंदाज इस घरानें की मुख्य विशेषता है.24
2. डागर घराना – इसका सम्बंध ध्रुवपद की डागुर बानी से है इस घराने में कण एवं मीड़ आदि के सहारे धीरे-धीरे प्रत्येक स्वर का न्यास होता है. इसलिए इस घराने के आलाप शांतारयुक्त होते हैं.
ध्रुपद के इन घरानों ने देश को कई प्रतिष्ठित कलाकार प्रदान किये हैं. कुछ नाम इस प्रकार हैं- पद्मश्री गुंदेचा बंधु, पं0 सियाराम तिवारी मोहिउद्दीन डागर, प्रो0 पं0 प्रेम कुमार मलिक, प्रशांत एवं निशांत मलिक इत्यादि. इस तरह इन घरानों का योगदान भी ध्रुपद के विकास में अतुलनीय है.
वर्तमान में ध्रुपद के विकास में संस्थागत शिक्षण प्रणालियों का भी महत्वपूर्ण योगदान है. संस्थागत शिक्षण प्रणाली के अन्तर्गत इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दरभंगा घराने के प्रो0 पं0 प्रेम कुमार मल्लिक जी की नियुक्ति की गई तथा डागर घराने के डॉ0 विशाल जैन की नियुक्ति हुई. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में ध्रुवपद विभाग में प्रो0 ऋत्विक सान्याल जी जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुये है, विश्वभारती में प्रो0 कावेरी कर तथा राजस्थान विश्वविद्यालय (जयपुर) के संगीत विभाग में डा0 मधु भट्ट तैलंग जी की नियुक्ति हुई. ध्रुपद की शिक्षा छात्र-छात्राओं को प्रदान कर रहे हैं जिसके माध्यम से प्रत्येक विद्यार्थी ध्रुपद जैसी गंभीर और क्लिष्ट शैली को सीखने का लाभ प्राप्त कर पा रहा है. ध्रुपद के विकास में इन शिक्षण संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान है.
निष्कर्ष –
ध्रुपद शैली जैसी गौरवशाली संगीत का पुर्नप्रतिष्ठापन आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत की महान आवश्यकता है. इसकी संरचना में जो संगीत एवं साहित्य का अद्भुत मिश्रण है वह अनुठा है. ध्रुपद की विकास यात्रा देखने के पश्चात् यही कहा जा सकता है कि यदि वर्तमान में भारतीय शास्त्रीय संगीत से ध्रुपद शैली का लोप कर दिया जाये तो सम्पूर्ण भारतीय संगीत पंगू बनकर रह जायेगा. ध्रुपद की इस अटल यात्रा को अनवरत बनाने में संस्थाओं, अकादमियों पद समारोहों, शिक्षण संस्थाओं एवं ध्रुपद के घरानों का विशेष योगदान है. ध्रुपद के विकास हेतु यह आवश्यक भी है और जरूरत भी.