ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग एवं आकाशवाणी के आगमन से तबला वादन में परिवर्तन

डॉ0 प्रेम प्रकाश प्रजापति, संगीत शिक्षक, उत्‍क्रमित+2 उच्‍च विद्यालय, कलहाबाद, हजारीबाग, झारखण्‍ड

Email: premtabla1@gmail.com

डॉ0 शोभित कुमार नाहर, सहायक प्राध्यापक, सितार विभाग, महिला महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उत्तर प्रदेश  | Email: shobhitnahar@gmail.com

सारांश

विज्ञान ने जिस प्रकार से अन्य क्षेत्रों में अपना प्रभाव दिखाया है और नए-नए अविष्कारों से जीवन के कई क्षेत्रों में नए-नए परिवर्तन हुए. संगीत का क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा. वैसे तो आविष्कार और परिवर्तन हर युग में हुए, पर बीसवीं शताब्दी में जितने आविष्कार हुए और नए-नए यंत्रों का विकास हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ. संगीत पद्धति और शैली में परिवर्तन मुगल काल और उसके पूर्व से ही होता चला आ रहा है परंतु वैज्ञानिक परिवर्तन के लिए बीसवीं सदी का पूर्वार्ध महत्वपूर्ण है. नए-नए यंत्रों ने जहां प्रचार और प्रसार में योगदान दिया वहीं वाद्य यंत्रों में सुधार भी हुआ. गायन और वादन शैली में भी परिवर्तन आया और स्वर माधुर्य में भी पर्याप्त सुधार हुआ. विभिन्न यंत्रों के विकास ने उसमें एक क्रांति ला दी. प्रस्तुत शोधपत्र ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग और आकाशवाणी के आगमन से तबला वादन में जो परिवर्तन आए, उनको रेखांकित करने का प्रयास है.

मुख्‍य बिन्‍दु:  वादन शैली, परिवर्तन, ध्‍वनि विस्‍तारक यंत्र, आकाशवाणी, गायन-वादन

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग प्रारंभ हो गया था. ध्वनि विस्तारक यंत्रों के उपयोग से जहां सभाओं तथा महफिलों में श्रोताओं की वृद्धि हुई वहीं पर कलाकारों के गायन तथा वादन शैली में भी पर्याप्त परिवर्तन हुआ.

पहले गायन या वादन में आवाज की बुलंदी पर अधिक ध्यान दिया जाता था और उसका सम्भवतः यही कारण था कि सभाओं में श्रोता दूर-दूर तक सुन सकें. लेकिन जोरदार आवाज होने से वादन में स्वर माधुर्य का आनंद नहीं रहता था. ध्‍वनि विस्‍तारक यंत्रों के आगमन ने संगीत का जैसे कायाकल्‍प ही कर दिया. खुली और बुलन्‍द आवाज, जोरदार, गायन-वादन आदि की परिभाषा ही जैसे बदल गई. अब ध्‍वनि को कर्णप्रिय और मधुर बनाने पर जोर दिया जाने लगा. चमत्‍कार का स्‍थान आकर्षण ने ले लिया. संगीतकारों ने इसी दौर में सौंदर्याभिव्‍यक्ति पर भी बल देना शुरू किया.

इस संदर्भ में पं0 विजय शंकर मिश्र जी कहते हैं कि, “उस समय तक वातानुकूलित सभागृहों का निर्माण नहीं हुआ था. बड़े-बड़े सभागारों अथवा पंडालों में बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के वादन करते समय तबला वादकों को काफी ताकत का इस्तेमाल करना पड़ता था. बहुत जोर से तबला बजाना पड़ता था. उस समय जनता भी हजारों की संख्या में होती थी. तबला वादक की कोशिश होती थी कि सभागार में उपस्थित अंतिम श्रोता (दर्शक) तक तबले पर बजने वाले बोलों की ध्वनि स्पष्ट सुनाई दे. इसलिए उनको तबला जोर से बजाना पड़ता था. जोर से तबला बजाने के लिए रियाज भी वैसे ही करना पड़ता था”.

उस समय के जो वरिष्ठ कलाकार थे वे पीतल या लोहे के दो-ढाई किलो का एक कड़ा बनवाते थे और उसको दाहिने हाथ में पहन कर तबले पर रियाज करते थे. जब वे कड़ा उतार के तबला बजाते थे तो जमीन पर बजने वाले बोल आकाश में उड़ने लगते थे. उस समय ऐसे तबले भी बनते थे जिनके ऊपर चमड़ा न लगाकर लकड़ी ही लगा रहता था. इस पर रियाज करने से हाथ मजबूत होते थे तथा ऐसे तबले पर कभी भी रियाज किया जा सकता था. कलाकार ज्यादातर रात को ही रियाज करते हैं तो घरवालों या पड़ोसियों की नींद न खराब हो, इसलिए रात को भी इस पर रियाज किया जा सकता था. हमारे यहां बोलों का बहुत महत्व रहा है इसलिए कलाकारों को इस बात का भी डर रहता था कि बार-बार किसी बोल को बजाएंगे तो अगल-बगल का कलाकार उसको सुनकर याद कर सकता है. तो इसलिए लकड़ी के ऐसे तबले का प्रयोग किया जाता था. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि चमड़े से मढ़े (चर्माच्छादित) तबले प्रचलन में नहीं थे. रियाज के लिए उनका भी प्रयोग होता था क्योंकि नाद सौंदर्य, नाद माधुर्य, हमारे बोलों कि ध्वनि कैसी आ रही है इसका अंदाज तो उन्हीं तबलों से लगता था. लेकिन ध्वनि विस्तारक यंत्रों ने इस पूरे परिदृश्य को बदल कर रख दिया. ध्वनि विस्तारक यंत्रों के आ जाने के कारण खुले और जोरदार बोलों के वादन के लिए अधिक अवसर नहीं रह गया था. ये ध्वनि विस्तारक यंत्र उच्च क्षमता वाले, अति संवेदनशील और सेंसेटिव होते थे. इसलिए जोर से तबला बजाने पर इनकी आवाज फट जाती थी.

चूकि जोर से तबला बजाने पर ऐसे बोलों में आवाज फट जाती थी इसलिए मुलायम और मधुर बोलों का प्रचलन शुरू हो गया. सभी घरानों के लोग ऐसे बोलों पर आश्रित होने लगे.

लखनऊ, फर्रुखाबाद, बनारस और पंजाब घराना में बोल तो अवश्य तबले पर बजते रहे लेकिन उनका खुलापन, उनकी जोरदारी, वो मुलायमियत में बदलती रही और बन्द बाज के बोलों को हर घराने के तबला वादक खुशी-खुशी बजाने लगे.

बनारस घराने के पं0 अनोखे लाल मिश्र जी, पं0 सामता प्रसाद मिश्र जी (गुदई महाराज), पं0 रंगनाथ मिश्र जी, पं0 शारदा सहाय जी जैसे तबला वादकों की ध्वनि मुद्रिकायें उपलब्ध है जिसमें इन लोगों ने दिल्ली घराने के कायदों को बहुत ही अच्छी तरह से बजाया है. दो अंगुलियों के इन कायदों को इस तरह के बोलों को हर घराने के तबला वादक बजाने लगे. इतना ही नहीं हुआ खुले बाज के लिए मशहूर घरानों में भी बंद बाज के बोलों का निर्माण भी होने लगा.

 बनारस घराने का एक कयदा है-

धागेनधा   तिरकिटधागे    नधातिरकिट     धाधातिरकिट.

X

धागेनधा   तिरकिटतूना   किटतकतिरकिट   तकतातिरकिट.

2

तागेनता   तिरकिटतागे    नतातिरकिट      तातातिरकिट.

0

धागेनधा   तिरकिटधिना   किटतकतिरकिट   तकतातिरकिट.

3

उपरोक्त कायदे को हम देखें तो इसमें शुरू से अंत तक मुलायम तथा बन्द बोलो का प्रयोग हुआ है. इसमें केवल एक बोल समूह ‘तूना किटतक’ है जो यह दर्शाता है कि यह बनारस घराने का बोल है. अगर इस कायदे को दूसरे घराने का कलाकार बनाया होता तो ‘तूना  किटतक’ की जगह इसमें ‘तीना गीना’ का प्रयोग करता. तो यह बहुत ही सूक्ष्म विभाजन है जिससे यह पता चलता है कि यह बोल कहाँ का है. इस तरह से अलग-अलग घरानों के कलाकारों ने भी जब बन्द बाज के बोलों का निर्माण किया तो अपने घराने की विशेषता को नहीं छोड़ा.’’1

‘ना धिं धि ना के जादूगर पं0 अनोखे लाल  मिश्र जी’ नामक पुस्तक में प्रेम नारायण सिंह जी पं अनोखे लाल जी के संदर्भ में लिखते हैं कि, “उस समय जोर से बजाने का रिवाज था. इसलिए गुरु जी ने उन्हें जोर से रियाज करने की प्रेरणा दी थी उन्होंने उनके जीवन पर्यंत जोर से रियाज किया, जिसके कारण कमरे या हाल की दीवारों से विचित्र गूँज निकलती थी. पूरा वातावरण गुंजायमान हो जाता था. परन्तु समाज में संगीत से अनभिज्ञ लोग इसे कम पसन्द करते थे.

प्रारम्भ में जोरदार अभ्यास के कारण पास-पड़ोस से शिकायत भी मिली. वे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, इसलिए हमेशा अपने मान-सम्मान का ध्यान रखते थे. किसी को कष्ट देना उन्हें पसंद नहीं था. पड़ोसियों को असुविधा ना हो इसलिए ढ़ाई फीट लंबे, डेढ़ फीट चौड़े तथा तीन फीट मोटी लकड़ी के पीढ़े पर रियाज करने लगे. पीढ़े  पर अंगुलियों के घिसाव से गड्ढे बन गए थे. एक विचित्र काष्ठ का तबला बनवाए थे, जिसकी पूड़ी भी काष्ठ की थी, उस पर अभ्यास द्वारा घिसाव के निशान पड़ गए थे.”2

इसी क्रम में इसी पुस्तक में प्रेम नारायण सिंह जी लिखते है कि “अपने पूज्य गुरु पं0 भैरो जी के निधन के पश्चात अपने वादन को हल्के हाथों से वादन करना प्रारंभ कर दिया, जिसके प्रभाव से उनकी तैयारी बहुत बढ़ गई और वादन में अद्भुत निखार आ गया. जब हल्के हाथ से बजाने लगे तो लोग समझ नहीं पाते थे कि इतने हल्के हाथ से भी तबला बज सकता है. उनके हाथों में इतना चमत्कार था, यश था कि जितना हल्का कर रहे थे, उतनी ही तैयारी बढ़ रही थी. वादन में ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों का सम्मिलित स्वरूप निखर कर, संगीत प्रेमियों का दिल जीत ले रहा था.”3

इस संदर्भ में पं0 विनोद गंगाधर लेले जी कहते हैं कि, “माइक के आने का प्रभाव यही हुआ कि लोग घर में भी बहुत ही हल्का रियाज करते हैं. माइक की वजह से बजाने में मधुरता आती है. अधिक लोग बैठे हो तो भी बजाने में ज्यादा शक्ति का प्रयोग नहीं करना पड़ता है. पहले माइक नहीं था तो कलाकारों को लाउड बजाना पड़ता था और गाने वालों को भी लाउड गाना पड़ता था. उसी पीच में वह गाते थे कि जितने भी लोग बैठे हो सब को सुनाई दे. तो यह फर्क तो पड़ा ही है माइक के आने से. आप धीरे से धीरे कोई चीज बजायें तो भी इसमें स्पष्ट सुनाई पड़ता है.” 4

आकाशवाणी के आगमन से वादन शैली में बदलाव

संगीत के क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में एक और क्रांति हुई और वह है प्रचार और प्रसार का सबसे बड़ा माध्यम रेडियो का आगमन.

23 जुलाई 1927 को एक निजी कंपनी इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी लिमिटेड द्वारा भारत में आकाशवाणी का प्रारंभ शुरू हो गया. 1936 में यह ऑल इंडिया रेडियो के नाम से भारत सरकार के अधीन आई. यहां से संगीत में बदलाव की एक और स्थिति शुरू हो गई.

इस संदर्भ में पं0 विजय शंकर मिश्र जी कहते हैं कि, “आकाशवाणी ने अलग-अलग घराने के कलाकारों को निकट लाने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जिस समय एक घराने का कलाकार दूसरे घराने के कलाकारों का गायन-वादन इस डर से नहीं सुनते थे कि कहीं उनका प्रभाव हमारे गायन-वादन में ना आ जाए. उस समय आकाशवाणी ने एक घराने के कलाकार को दूसरे घराने के कलाकार के घर तक ला दिया.

आकाशवाणी की कुछ पाबंदियाँ थीं. ये कलाकार राजाओं तथा नाबाबों के दरबार से आए थे और मंचीय कार्यक्रमों में भी उस समय खुला गाना-बजाना होता था जिसको दंगली गाना-बजाना कहते थे. उस समय के कलाकारों की एक आदत हो गई थी कि अगर कोई बोल बजाया और जब सम पर आया तो वह मुंह से भी ‘धा’ या ‘हां’ बोल देते थे. उससे रोमांचित होकर दर्शक तालियां बजाने लगते थे. उस समय यह एक प्रचलन हो गया था और हर एक तबला वादक यही काम करता था. लेकिन जब यह कलाकार आकाशवाणी में गए तो, एक तो वहां समय की पाबंदी लगा दी गई, कि आपको इतनी ही देर तक तबला बजाना है और मुंह से किसी भी प्रकार की कोई आवाज नहीं निकालनी है. उसका परिणाम यह हुआ कि सम का जो अंतिम ‘धा’ था जहां ये ‘हां’ बोलते थे उसको रोकने के लिए इनका ‘धा’ भी कमजोर पड़ने लगा. जिसके कारण कार्यक्रम के समापन में जो एक चमत्कार होता था, जो प्रभाव बनता था वह कम हो गया. हमें यह मान लेना होगा कि किसी भी कार्यक्रम में श्रोताओं की बहुत बड़ी भूमिका होती है. हमने कोई काम किया और किसी ने उसकी तारीफ कर दी तो उससे उत्साह बढ़ता है. लेकिन आकाशवाणी में यह नहीं रहा. आकाशवाणी में आप अकेले बंद कमरे में बजाते रहिए, अगर साथ में कोई सुनने के लिए बैठा भी है तो आपके किसी भी बोल पर वह तालियां नहीं बजा सकता. इससे मंच पर जो क्षमता आती थी, जो एक प्रभाव बनता था कलाकारों में वो प्रभाव आकाशवाणी में शुरू के दिनों में नहीं बनता था. अब तो अभ्यस्त हो गए हैं.’’5

‘‘खुले मंच पर समय के बंधन से मुक्त खुला गायन-वादन करने के अभ्यस्त कलाकारों को आकाशवाणी में समय के बंधन में बांध दिया गया. जहाँ एक-एक मिनट का हिसाब रखने पर विवश होना पड़ता था. इसका एक लाभ तो यह हुआ कि कार्यक्रम सुनिर्धारित एवं सुनियोजित होने लगा. कुछ भी बजा देंगे, कुछ भी चलेगा यह सिलसिला बंद होने लगा. कलाकार पहले से तय करके जाने लगे कि कौन सी रचना या बोल कितनी देर बजाना है. पहले जहाँ तबले पर उठान, पेशकार बजाने में ही 15 से 20 मिनट लग जाता था. अब यहां 20 मिनट में पूरे कार्यक्रम को ही समाप्त कर देना है. तो इस तरह से कलाकारों का नियोजन क्षमता, कि कैसे नियोजित रूप में कार्यक्रम पेश किया जाए इसका विकास हुआ.ध्वनि विस्तारक यंत्रों के आविष्कार तथा आकाशवाणी के आगमन ने तबला वादक को कुछ अलग ढंग से सोचने के लिए प्रेरित किया. आकाशवाणी ने तबला वादकों की सामाजिक एवं सांगीतिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने की दिशा में भी बहुत काम किया.

            लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. इसका एक नुकसान यह हुआ कि कई लंबी-लंबी परनें जिनकी लंबाई बहुत ज्यादा होती थी, कई फरमाईशी, कमाली, नौहक्का या स्तुति परन आदि जिसके लिए यह होता था कि उनका एक बार पढ़ंत करना जरूरी है. ऐसे बोल प्रायः लुप्त होने लगे और कलाकार सोचने लगे कि कुछ मीठा-मीठा मुलायम-मुलायम बजाकर अपना कार्यक्रम समाप्त किया जाए.