नाट्यशास्त्र में वर्णित ताल-तत्व: एक अध्ययन

डॉ० रितु सिंह

असिस्टेन्ट प्रोफेसर – सितार

कमला आर्य कन्या पी. जी. कालेज, मीरजापुर, उत्तर प्रदेश

Email: ritujeets@gmail.com

Vidwan ID: 531797

सारांश

नाट्यशास्त्र भारतीय कला और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है. भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र नाट्यकला का तो संसार का सबसे प्राचीन ग्रंथ है ही,  भारतीय संगीत का भी यह आद्य ग्रन्थ माना जाता है. यद्पि स्वयं भरत मुनि ने  “गांधर्वमेतत् कथितं मया हि पूर्वं यदुक्तंत्विह नारदेन” कह कर अपने से पूर्ववर्ती एक समृद्ध संगीत परम्परा की ओर इंगित किया है, किन्तु नाट्यशास्त्र से पूर्ववर्ती कोई भी संगीत का शास्त्र ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है. अतएव नाट्यशास्त्र को ही भारतीय संगीत शास्त्र का प्रारम्भिक व आधार ग्रन्थ माना जाता है. परवर्ती समस्त संगीत सम्प्रदाय व शास्त्र ग्रन्थ अपनी समसामयिक परम्पराओं का यत्किंचित आख्यान करते हुए भी मुख्य रूप से नाट्यशास्त्र का ही अनुगमन करते हैं. अतः संगीत के प्रत्येक अध्येता के लिए भरत के संगीत सिद्धान्त को जान लेना परमावश्यक है. इसी परिप्रेक्ष्य से प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से नाट्यशास्त्र में वर्णित ताल-तत्व का सैद्धान्तिक विवेचन संक्षेपतः प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है.

बीज शब्द – नाट्यशास्त्र, तालक्रिया,  मार्गभेद, कालप्रमाण, यति.

शोध प्रविधि – द्वितीयक स्त्रोतों के माध्यम द्वारा तथ्यात्मक सामग्री संकलित कर अध्ययन किया गया है.

शोध उद्देश्य – प्रस्तुत शोध-पत्र के लेखन का मुख्य उद्देश्य नाट्यशास्त्र में वर्णित ताल के मूल तत्वों का शास्त्रीय विवेचन करना है.

प्रस्तावना – संगीत की दृष्टि से नाट्यशास्त्र के अट्ठाईस से लेकर तैतीस तक छः अध्याय तथा आसारित आदि गीतों से सम्बद्ध पाँचवा अध्याय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है. भरत मुनि ने वर्णित इन सात अध्यायों में सम्पूर्ण संगीत शास्त्र की विराट चेतना को समाहित कर दिया है. स्वर, लय, ताल, वादी-संवादी आदि चारों भेद, 22 श्रुतियाँ, ग्राम, मूर्छना, अलंकार, जाति, सप्तगीत विधान, ध्रुवागान, चतुर्विध वाद्य, उनके भेद-प्रभेद, उनकी निर्माण एवं वादन विधि आदि ऐसा कोई विषय नहीं जो यहाँ अविवेचित रह गया हो. यह समस्त वर्ण्य-विषय ही हमारी सशक्त शास्त्रीय संगीत परम्परा का प्राणवान उत्स है, उसका सुदृढ़ आधार है. भारतीय ताल पद्धति के मूल सिद्धान्तों का निरूपण भी संगीत के अन्य विषयों की तरह ‘नाट्यशास्त्र’ में ही उपलब्ध होता है,  इसलिए ताल की दृष्टि से भी इसे आधार ग्रन्थ माना गया है. तत्कालीन ताल पद्धति का सांगोपांग विवेचन इस ग्रन्थ के इकतीसवें अध्याय में प्राप्त होता है.         

विषय प्रवेश – ताल का स्वरूप स्पन्दन है. संसार में सारी शक्तियाँ स्पन्दन रूप में ही अवस्थित हैं. ‘ताल’ शब्द मूल रूप से ‘तल’ अर्थात् करतल (हथेली) से बना है, क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था में समय की गति को हाथों से ताली बजाकर ही धारण किया जाता था तथा यही क्रिया विभिन्न रूपों में अब भी प्रचार में है. कालान्तर में करतल के स्थान पर झाँझ-मंजीरा आदि घन वाद्यों का प्रयोग ताल को धारण करने के लिए किया जाने लगा. अतः उनका कर्म-परक नाम ‘ताल’ हो गया. जैसा कि भरत मुनि ने कहा है-

तालों घन इति प्रोक्तः कलापातलयान्वितः.

कलास्तस्य प्रमाणं वै विज्ञेयं तालयोक्तृभिः ॥

(भ. ना. शा. 31/1, द्रष्टव्य: पुरू दाधीच.  नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 60)

अर्थात् जो ताल प्रयोक्ताओं के द्वारा कला, पात, लय आदि से अन्वित होकर काल के प्रमाणरूप में जाना जाता है तथा घन वाद्य के द्वारा आता है – ताल कहलाता है. मुख्यतः काल और मान इन दो तत्वों के मेल से ही ‘ताल’ का निर्माण हुआ है. “तालः कालक्रियामानम” के अनुसार संगीत-कर्म में व्यतीत होने वाले समय के प्रमाण अर्थात् नाप-जोख को रखने का साधन ताल है. इस तरह ताल को हम काल-मापक रूप में जानते हैं.[i]

किन्तु आचार्य शाङ्गदेव ने ‘संगीत रत्नाकर’ में ‘ताल’ शब्द की व्युत्पत्ति प्रतिष्ठा (आधार, नींव ) अर्थ वाली ‘तल्’ धातु से मानते हुए लिखा है-

तालस्तल्प्रतिष्ठायामिति धातोर्धञ् स्मृतः .

गीतं वाद्यं तथा नृतं यतस्ताले प्रतिष्ठितम् ॥

शाङ्गदेव के अनुसार प्रतिष्ठार्थक ‘तल्’ धातु में ‘घञ’ प्रत्यय लगाने से ‘ताल’ शब्द की निष्पत्ति हुई है. गायन, वादन और नृत्य ये तीनों ताल पर ही आधारित है. प्रतिष्ठा का अर्थ है एक सूत्र में बाँधना, व्यवस्थित करना, आधार प्रदान करना, स्थिरता लाना आदि. गीत, वाद्य और नृत्य के विभिन्न तत्वों को एक अवस्था प्रदान करके स्थिर बनाने वाला और आधार प्रदान करने वाला तत्व ही ‘ताल’ है. परवर्ती काल में शाङ्गदेव द्वारा सुझाई गई ताल की उपर्युक्त व्युत्पत्ति अत्यन्त लोकप्रिय हुई तथा विभिन्न संगीत ग्रंथकारों द्वारा इसे ज्यों का त्यों उद्धृत भी किया गया.

ताल के मूल तत्त्व –

संगीत रत्नाकर आदि मध्यकालीन शास्त्र-ग्रंथों में ताल के दस आधार भूत तत्त्व माने गये हैं, जिन्हें ‘ताल के दस प्राण’ नाम दिया गया है. ये तत्त्व हैं- काल, मार्ग, क्रिया, अंग, ग्रह, जाति, कला, लय, यति और प्रस्तार. नाट्यशास्त्र में यद्यपि इनका ‘दस प्राण’ नाम से उल्लेख नहीं है किन्तु प्रकारान्तर से इन सभी का विवरण प्राप्य है. या यह कहा जा सकता है कि नाट्य- शास्त्रीय सिद्धान्तों को ही कालान्तर में ग्रंथकारों ने पुनः व्यवस्थित कर प्रस्तुत किया है. नाट्यशास्त्र में प्रत्यक्षतः जिन ताल-तत्त्वों का सिंहावलोकन किया गया है वे हैं- काल प्रमाण, त्रिलय, त्रिमार्ग, त्रियति, विपाणि, ताल क्रिया और तालभेद. इन विशिष्ट ताल-तत्त्वों का सैद्धान्तिक विवेचन अग्रांकित है –

काल प्रमाण –  सांगीतिक काल-मान लौकिक काल-मान से भिन्न होता है. इसी बात को स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्त्र में कहा गया है कि लौकिक व्यवहार में विद्वज्जन जिसे कला, काष्ठा, निमेष आदि कहते हैं, समय के उस परिमाण को ताल-कला नहीं समझना चाहिए. ताल से उत्पन्न कला इनसे भिन्न होती है. गान काल में पाँच निमेष के बराबर समय की एक ‘मात्रा’ होती है और मात्राओं के योग से कला उद्भूत होती है. पाँच निमेष का समय गान काल में मध्यवर्ती या दो मात्राओं के बीच का समय माना जाता है.

निमेषाः पंच मात्रास्यान्मात्रायोगात् कला स्मृताः .

निमेषा पंच विज्ञेया गीतकाले कलान्तरम् ॥

(भ. ना. शा. 31/3, द्रष्टव्य: पुरू दाधीच.  नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 62)

यहाँ स्मरणीय है कि अमरकोश के अनुसार 18 निमेष की 1 काष्ठा तथा 3 काष्ठा की एक कला होती है. इस प्रकार एक कला का समय वर्तमान आठ सेकण्ड्स के बराबर माना जा सकता है. अन्य पद्धतियों से इसका समय 48 सेकण्ड्स या कभी-कभी एक मिनट भी हो जाता है . क्षीरस्वामी ने आँख की पलक के एक बार झपकने के बराबर समय को ‘निमेष’ कहा है इसी प्रकार शार्ङ्गदेव आदि आचार्य पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण काल के बराबर समय को एक माताश् मानते हैं. वस्तुतः संगीत में प्रयुक्त समय की सबसे छोटी इकाई जिसे मात्रा या कला कहा जाता है. काल मान प्रत्येक संगीतज्ञ अपनी-अपनी रुचियों व प्रबन्ध (बन्दिश) की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित करता है. इसीलिए संगीत रत्नाकर में कहा गया है कि दोनों हाथों के मिलाने और अलग करने में अर्थात (दो तालियों के बीच) सदैव व्याप्तिमान है वही तालसंज्ञक काल है.[ii]

हस्तद्वय संयोगे वियोगे चापि सर्वदा .

व्याप्ति मान्यः समादिष्टः स कालस्तालसंज्ञकः ॥

(भ. ना. शा. 31/4, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 62)

त्रिलय – ‘लय’ का व्याख्यान नाट्यशास्त्र में सर्वप्रथम काल के साथ ही किया गया है. भरत मुनि कहते हैं कि कला की समयावधि के अनुसार ही लय का निर्माण होता है .

ततः कला-काल कृतो लय इत्यभिसंज्ञितः .

(भ. ना. शा. 31/4, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 63)

इसके आगे भी वे ‘लय’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं-

छन्दोऽक्षरपदानां हि समत्वं यत्प्रकीर्तितम् .

कलाकालान्तरकृतः स लयो मानसंज्ञितः ॥

(भ० ना० शा०, 31/488,  द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 63)

अर्थात् जो शब्दों, अक्षरों, पदों की समता कही गई है वह कला के कालान्तर से निर्मित मान (प्रमापन) संज्ञक ‘लय’ है. वे यह भी कहते हैं कि यह लय गीत, वाद्य उभयात्मिका है तथा विभिन्न मार्गों द्वारा अभिव्यक्ति पाती हैं. तीनों यतियों और तीनों मार्गों में लय ही संश्रित (स्थित) है .

मार्गेषु व्यक्तिमायात्ति गीतवाद्योभयात्मिकाः .

तिस्त्रस्तु यतयश्चान्यां मार्गेषु लयसंश्रयाः ॥

(भ० ना० शा०, 31/487, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 63)

लय शब्द ‘‘लीङ् श्लेषणे’’ धातु से निष्पन्न होता है . श्लेषण का अर्थ ‘मिलाना या जोड़ना’ है . तद्नुसार दो मात्रा, कला या क्रियाओं का जोड़ने वाला तत्त्व ‘लय है’ . इसी बात को प्रकारान्तर से इस प्रकार कहा जाता है कि क्रिया के अनन्तर होने वाली विश्रान्ति या दो क्रियाओं के बीच के अन्तराल को ‘लय’ कहते हैं .

लय के प्रकार – नाट्यशास्त्र के अनुसार लय के तीन प्रकार हैं, यथा- द्रुत, मध्य और विलम्बित. इनमें से मध्य लय ही ‘प्रमाण कला’ का निर्णय करती है .[iii]

त्रयोलयास्तु विज्ञेया द्रुतमध्यविलम्बिताः .

यस्तत्र तु लयो मध्यस्तत्प्रमाणकला स्मृता ॥

(भ० ना० शा ० 31/4, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 63)

मार्ग भेद – गुरु का ही अन्य नाम है – कला. इस कला का काल-प्रमाण विभिन्न सम्प्रदायों में अलग-अलग माना गया है . कला-प्रमाण के भेदों से भिन्न होने को ही ’मार्ग’ कहते हैं . नाट्यशास्त्र में मार्ग के तीन भेद- चित्र, वृत्ति या वार्तिक और दक्षिण मार्ग बताए गए हैं. इनमें से चित्र मार्ग में कला की दो मात्रा, वार्तिक मार्ग में कला की चार मात्रा और दक्षिण मार्ग में कला की आठ मात्रा होती है.

चित्रे द्विमात्रा कर्त्त्तव्या वृत्तौ सा द्विगुणा स्मृता.

चतुर्गुणा दक्षिणे स्यादित्येव त्रिविधा कला ॥

(भा० ना० शा० 31/5-6, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 64)

संगीत रत्नाकर में उपर्युक्त तीन के अतिरिक्त चौथा ध्रुव मार्ग बताया गया है, जिसमें कला की एक मात्रा होती है. इसका आधार भी नाट्यशास्त्र में वर्णित ध्रुव नामक एक सशब्द क्रिया है, जिसमें एक मात्रा पर पात होता है-

ध्रुवस्तु मात्रिकः पातः रागमार्गप्रयोजकः.

(भ० ना० शा० 31/40, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 64)

परववर्ती काल में मार्ग भेदों की संख्या वृद्धि की प्रवृत्ति रही है. संगीत चूड़ामणि में छः और मणिदर्पण में बारह मार्ग भेद बताये गये हैं. इसी प्रकार ‘देशी पद्धति’ में कला की एक से आठ तक प्रत्येक मात्रा का अलग-अलग नाम देकर उनमें से हर एक की क्रिया भी बताई गई है. इसका नाम ‘देशी क्रिया’ है. इस तरह संक्षेप में हम कह सकते हैं कि किसी भी ताल का प्रयोग करते समय प्रत्येक कला-मात्रा का हम क्या काल-मान निर्धारित करके चलते हैं इसी का नाम ‘मार्ग’ है.[iv]

ताल क्रिया – नाट्यशास्त्र में ताल क्रिया दो प्रकार की बताई गई है – सशब्द और निःशब्द.

द्विप्रकारस्त्वयं तालो निःशब्दः शब्दवांस्तथा

(भ० ना० शा० 31/30, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 64)

सशब्द क्रिया का ही अन्य नाम ‘पात’ तथा निःशब्द क्रिया का दूसरा नाम ‘कला’ है. नाट्यशास्त्र में इन दोनों के ही चार-चार भेद बताए गए हैं. निःशब्द क्रिया के चार भेद ये हैं- 1.आवाप,  2.निष्क्राम, 3. विक्षेप तथा प्रवेशका. इसी प्रकार सशब्द क्रिया के चार प्रकारों के नाम हैं –  1.शम्या,. 2.ताल, 3. ध्रुव तथा 4. सन्निपात. इनके लक्षण निम्नानुसार हैं.

निःशब्द क्रिया भेद –

1. आवाप – उत्तान हस्त (ऊपर उठी हथेली) की सभी अंगुलियों को सिकोड़ना या बन्द करना ‘आवाप’ कहलाता है .

2. निष्क्राम – अधोगत (नीचे झुकी) हथेली की अंगुलियों को फैलाना ‘निष्क्राम’ कहलाता है .

3. विक्षेप – अधोगत हस्त को दाहिनी बाजू में झटका देकर फेंकना ‘विक्षेप’ है .

4. प्रवेश – अधोगत हस्त को पुनः अपनी दशा में वापस लौटाना ‘प्रवेश’ कहलाता है .

आवाप क्रिया को अंगुलियों द्वारा प्रदर्शित करने के बाद निष्क्राम और फिर विक्षेप के बाद प्रवेश की क्रिया की जाती है . यह क्रम चतुष्कल ताल के होने पर रखा जाता है . निष्क्राम और विक्षेप क्रिया दो कला के प्रमाण की होती है . इनके मध्यवर्ती समय में होने वाली (ताली बजाने की) क्रिया ‘पात’ कहलाती है .

सशब्द क्रिया भेद –

1.शम्या- दाहिने हाथ से आघात कर ताल देने को ‘शम्या’ कहते हैं .

2. ताल – बाएँ हाथ से आघात कर ताल देने की क्रिया ‘ताल’ कही जाती है .

3. सन्निपात – दोनों हाथों को एक साथ लाकर ताली बजाने को ‘सन्निपात’ कहते हैं .

4. ध्रुव-एक मात्रा पर विराम के लिए किया जाने वाला पात ‘ध्रुव’ कहा जाता है. जो तीन प्रकार की कला बताई गई है उनका पात भी ‘धुव’ कहलाता है.[v] (बृहस्पति, कैलाश चन्द्रदेव, भरत का संगीत सिद्धान्त, पृo 235 )

परवर्ती शास्त्रकारों ने भी इन्हीं क्रिया भेदों का वर्णन किया है, किन्तु ये सभी क्रिया भेद अब समान्यतः प्रचार में नहीं हैं. वर्तमान उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में अब केवल ताली व खाली के रूप में ही सशब्द और नि. शब्द क्रिया जानी जाती है .

यति भेद – लय की प्रवृत्ति का नियम ही ‘यति’ है. भरत मुनि के अनुसार यह ‘यति’ गीत एवं वाद्य के समाश्रित होकर पद, वर्ण एवं अक्षरों का विस्तार तथा नियमन का कार्य करती है. नाट्यशास्त्र में यति के तीन भेद बताए गए हैं, यथा- समा, स्रोतोगता व गोपुच्छा. इनके लक्षण निम्नानुसार हैं –

1.समा यति- जो अपने आरम्भ, मध्य और अन्त में लय, वर्ण और पदों की समता रखती हो उसे ‘समा यति’ कहते हैं. इसका चित्र मार्ग में उपयोग होता है और वाद्य-वादन में इसकी प्रमुखता रहती है .

2.स्त्रोतोगता यति- जो यति कभी तो वाद्यों की संगीत ध्वनि के मार्ग में आगे की ओर बढ़ते हुए रुकती और कभी तेज होती जाती हो तो उसे ‘स्रोतोगता यति’ कहा जाता है. इसका उपयोग वृत्ति (वार्तिक) मार्ग में किया जाता है .

3.गोपुच्छा यति- गुरु तथा लघु अक्षरों के कारण जिसके अक्षर ठीक से विभाजित किए या पहचाने नहीं जा सकते हों तो ऐसी फैली हुई और सामान्यतः गीत की प्रमुखता या आधिक्य न लिए हुए रहने वाली यति को ‘गोपुच्छा’ समझना चाहिए. इसका उपयोग दक्षिण मार्ग में होता है.

परवर्ती शास्त्रकारों ने जहाँ यति के उपर्युक्त लक्षणों में यत्किंचित परिवर्तन किया है वहीं दो यति भेद और बतलाए हैं, वे हैं – मृदंगा और पिपीलिका यति .

पाणि भेद – जिसे संगीत रत्नाकर आदि ग्रन्थों में ताल के दस प्राणों में से एक ‘ग्रह’ कहा गया है उसे नाट्यशास्त्र में ‘पाणि’ नाम दिया गया है . गायन एंव वादन के साथ ताल-क्रिया जहाँ से आरम्भ होती है उस स्थान को पाणि या ग्रह कहते हैं. ये स्थान तीन हैं, अतः नाट्यशास्त्र में भी पाणि के तीन भेद बताए गए हैं, यथा- सम पाणि, अव पाणि और उपरि पाणि. इनका लक्षण इस प्रकार बताया गया है-

1.सम पाणि – जो वाद्य-वादन लय के साथ-साथ चलने वाला होता है, उसे ‘सम पाणि’ कहा गया है.

लयेन यत् समं वाद्यं समपाणिः च उच्यते

(भ० ना० शा० 31/484, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 66)

2.अव पाणि – जो लय के आरम्भ हो जाने पर उसके पीछे चलता हो उसे ‘अव पाणि’ कहा गया है.

लयाद्यदवकृष्टन्तु सोऽवपाणिस्तु संज्ञितः

(भ० ना० शा० 31/485, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 64)

3.उपरि पाणि – जो वाद्य वादन लय-गति को अपना अनुसरण करवाए या जो लय से आगे हो उसे ‘उपरि पाणि’ समझना चाहिए.

लयस्योपरिवाद्यं स्यात्तथा चोपरिपाणिकम् ॥

(भ० ना० शा० 31/485, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 67)

ताल भेद – भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में जिन पाँच प्रमुख तालों का विशद् वर्णन किया है, उन्हें ‘मार्ग ताल’ के नाम से अभिहित किया है. वर्णित पंच मार्ग ताल इस प्रकार हैं- 1.चच्चत्पुट,      2.चाचपुट 3. षट्पितापुत्रक, 4. सम्पक्वेष्टाक, 5. उद्घट्ट. परवर्ती शास्त्रकारों ने भी इन्हें  ‘पंच मार्ग ताल’ ही कहा है तथा इन्हीं के आधार पर पाँच जाति भेदों का विकास हुआ है. इनमें भी दो प्रथम तालें ही प्रधान हैं, चच्चत्पुट और चाचपुट. यही दोनों चतुरश्र और त्रिस्त्र के प्रतिनिधि ताल माने जाते हैं. जैसा कि नाट्यशास्त्र में कहा गया है-

चतुरस्र त्रिस्त्रश्च तालो द्विविध एव हि .

(भ० ना० शा० 31/7, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 67)

शास्त्र में मात्राओं के तीन स्वरूप बताये गये हैं- लघु, गुरू और प्लुत. एक मात्रा काल को लघु, दो मात्रा काल को गुरू एवं तीन मात्रा काल को प्लुत माना गया. नाट्यशास्त्र में वर्णित पंच मार्ग तालों का लक्षण व स्वरूप लघु, गुरू और प्लुत के द्वारा इस प्रकार है-

1.चच्चत्पुट – इसे चतुरस्र ताल भी कहते हैं. इसका लक्षण इसके नाम नाम से ही प्रकट हो जाता है, क्योंकि जब तालों का रूप उनके नाम में प्रयुक्त अक्षरों की स्थिति के अनुसार होता है तब वे ‘यथाक्षर’ कहे जाते हैं. यथाक्षर को द्विगुणित मात्राएँ होने पर ‘द्विकल’ और चतुर्गुणित मात्राएँ होने पर ‘चतुष्कल’ ताल कहा जाता है.

प्रथमं गुरूणी कृत्वा लघुचान्त्यं प्लुतन्तथा.

अक्षराणां निवेशने स तु चञचत्पुटस्तदा.

(भ० ना० शा० 31/10, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 68)

अथात् जब आरम्भ के दो अक्षर गुरु, एक लघु तथा अन्तिम वर्ण प्लुत हो तो वह चच्चत्पुट ताल होती है. यताक्षर चच्चत्पुट ताल का स्वरूप गुरू, गुरू, लघु और प्लुत होता है.

2.चाचपुट- इसे तिस्त्र ताल भी कहा जाता है . यथाक्षर चाचपुट आरम्भ में एक गुरु, फिर दो लघु तथा अन्त में एक गुरु के संयोग से बनता है .

आदौ गुर्वक्षरं यत्र लघुनी गुरु एच च

त्यस्त्रः स खलु विज्ञेयस्तालश्चाचपुटो भवेत्

(भ० ना० शा० 31/11, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 69)

इस चाचपुट ताल के भी यथाक्षर, द्विकल और चतुष्कल ये तीन सामान्य भेद होते हैं . इनके अतिरिक्त क्रमशः 3, 6, 12, 24, 48 व 66 कला वाले छः विशिष्ट भेद होते हैं . इस तरह तिस्त्र ताल के कुल नौ भेद हो जाते हैं.

3.षट्पितापुत्रक – नाट्यशास्त्र में वर्णित तीसरी मार्ग ताल ‘षट्पितापुत्रक’ है. इसका अन्य नाम ‘पंचपाणि’ भी है. यह भी तिस्त्र जाति की ताल मानी जाती है. इसमें प्रथम वर्ण प्लुत, दूसरा लघु, तीसरा व चौथा गुरु, पाँचवा लघु और छठा प्लुत होता है. इस प्रकार इसमें छः अक्षर और छः पात होते हैं, जिनका क्रम इस प्रकार है- सन्निपात, ताल, शम्या, ताल, शम्या तथा ताल अथवा प्लुत + लघु + गुरू + गुरू + लघु + प्लुत है.[vi]

आद्यं प्लुतं द्वितीयन्तु लघु यत्राक्षरं भवेत् .

तृतीयञ्च चतुर्थच गुरुणी पञ्चमं लघु ॥

प्लुतान्तः षट्पतापुत्रो गुरुलाघवमंयुतः .

पञ्चपाणिः स विज्ञेयः षट्पातस्तु षडक्षरः ॥

सन्निपातस्ततस्तालः शम्या तालस्तथैव च .

शम्या चौव हि तालश्च षट्पातस्तस्य कीर्तितः ॥

(भ० ना० शा ० 31/21-23, द्रष्टव्य : पुरू दाधीच. नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 71)

4.सम्पक्वेष्टाक – नाट्यशास्त्र में वर्णित चौथी ताल ‘सम्पक्वेष्टाक’ है. यह भी तिस्त्र जाति की ताल मानी जाती है. इसमें मध्यवर्ती तीन अक्षर गुरु तथा आदि और अन्त का अक्षर प्लुत होता है.

तालादिस्त्यस्त्र भेदोऽन्यः सम्पक्वेष्टाकसंज्ञितः .

गुरुपञ्चाक्षराद्यन्त्य प्लुतमात्रा समन्वितः .

सन्निपातस्ततः शम्या तालशम्यैकतालका ॥

(भ० ना० शा०, 31/24, द्रष्टव्य: पुरू दाधीच.  नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 72)

5.उद्घट्ट – नाट्यशास्त्र में वर्णित अन्तिम ताल ‘उद्घट्ट’ है. यह भी तिस्त्र जाति की ताल है. इसमें तीन गुरु वर्ण होते है तथा ताल क्रिया इस प्रकार होती है-

तिस्त्र सर्व गुरु कृत्वा निष्क्रामं तत्र योजयेत् .

शम्या द्वयं ततस्त्वेष उद्घट्टः कथितो बुधैः ॥

(भ० ना० शा०, 31/25, द्रष्टव्य: पुरू दाधीच.  नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, पृo 73)

निष्कर्ष – उपरोक्त विवरण के अवलोकन के उपरान्त निष्कर्ष रूप में निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि नाट्यशास्त्र ग्रन्थ न केवल नाट्य का अपितु संगीत का भी आधार ग्रन्थ है. नाट्यशास्त्र विश्व का सबसे विशाल एवं बृहद् ग्रन्थ है, जिसमें संगीत से सन्दर्भित गायन, वादन व नृत्य के सभी आयामों का पूर्ण समागम है. नाट्यशास्त्र में ताल का सम्पूर्ण तात्विक एंव सैद्धान्तिक विवेचन किया गया है. ताल-तत्व के अवयवों का जितना सूक्ष्मतम और वैज्ञानिक वर्णन नाट्यशास्त्र ग्रन्थ में किया गया है उतना विश्व की किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता है. यही कारण है कि नाट्यशास्त्र हमारी सशक्त शास्त्रीय संगीत परम्परा का प्राणवान उत्स है तथा साथ ही भारतीय ताल पद्धति के मूल सिद्धान्तों के निरूपण का सुदृढ़ आधार है.

संदर्भ ग्रन्थ सूची –


[i] दाधीच, डॉ० पुरू, नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, 1994, प्रथम संस्करण, उज्जैन, मध्य प्रदेश, बिन्दु प्रकाशन

[ii] वही

[iii] वही

[iv] वही

[v] बृहस्पति, कैलाश चन्द्रदेव, भरत का संगीत सिद्धान्त, 1991, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ

[vi] दाधीच, डॉ० पुरू, नाट्यशास्त्र का संगीत विवेचन, 1994, प्रथम संस्करण, उज्जैन, मध्य प्रदेश, बिन्दु प्रकाशन