संगत वाद्य के रूप में अवनद्ध वाद्यों का महत्व (प्राचीन काल से वर्तमान काल के सन्दर्भ में) 

Akshita Bajpai (PhD Research Scholar)  

Prof. Gaurang Bhavsar (Research Guide)

Department of Tabla, Faculty of Performing Arts,

The Maharaja Sayajirao University of Baroda, Vadodara, Gujrat

Email-: bajpaiakshita2@gmail.com

Orcid Id:  https://orcid.org/orcid-search/search?searchQuery=0009-0009-4393-4747

शोध सार

प्रस्तुत शोधपत्र में शोधछात्रा द्वारा अवनद्ध वाद्यों के प्राचीन काल से वर्तमान काल तक के विकास क्रम की विस्तृत चर्चा की है। इस शोध में अवनद्ध वाद्यों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को वेद, पुराण, उपपुराण, और उपनिषद जैसे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित संदर्भों के माध्यम से प्रकाश में लाया गया है. अवनद्ध वाद्य यंत्रों का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से ही होता आ रहा है, और इसका उल्लेख वैदिक साहित्य में भी मिलता है। इस शोधपत्र के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि वैदिक युग से लेकर वर्तमान युग तक अवनद्ध वाद्यों ने गायन, वादन और नृत्य के साथ संगत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. प्राचीन काल के प्रमुख ग्रंथों का अध्ययन करते हुए, इनमें वर्णित अवनद्ध वाद्यों की संगत में भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसके पश्चात्, वर्तमान समय में अवनद्ध वाद्यों की विभिन्न विधाओं के साथ संगत का विश्लेषण करते हुए, उनके प्रयोग और महत्व को भी स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार, यह शोधपत्र अवनद्ध वाद्यों के ऐतिहासिक विकास और उनकी वर्तमान प्रासंगिकता को समझने का एक विनम्र प्रयास है।

बीज शब्द- अवनद्ध, वाद्य, प्राचीन, संगीत, सभ्यता, वैदिक, परम्परा 

भारत वर्ष सदियों से सांस्कृतिक धरोवर को संजोय हुये विश्व का पथ प्रदर्शित कर रहा है. भारत में शोध कार्य प्राचीन काल से निरंतर प्रगति पर है, भारत वर्ष में तक्षशिला, नालंदा, विक्रम शिला जैसे महाविश्वविद्यालय में अनुसंधान के लिए अलग से अभ्यास क्रम होता था. अतः प्राचीन व अर्वाचीन तबला संगत के विषय में कुछ प्रस्तुत करने का विन्रम प्रयास इस कार्य की भूमिका है. भारतीय संगीत में अनेक गायन विधाएं प्रचलित हैं, जिनमें कुछ शास्त्रीय और कुछ उपशास्त्रीय संगीत के अंतर्गत आती हैं। इन विधाओं में ध्रुपद, धमार, ख्याल, तराना, टप्पा, ठुमरी, गीत, भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, लोकगीत और सुगम संगीत शामिल हैं। संगीत की इन सभी विधाओं में ताल और लय का समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है, जो संगीत की विविधता और उसकी गहनता को दर्शाता है. ताल वाद्य विभिन्न विधाओं के अनुसार बदलते रहे परन्तु इन सभी में अवनद्ध वाद्य तबला का स्थान अनूठा रहा है. हिन्दुस्तानी संगीत में गायन वादन की परम्परा को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है, जिसमें ध्रुपद-धमार की संगत, ख्याल गायकी की संगत तथा अन्य शैलियाँ जिसके अंतर्गत भजन, भक्ति संगीत, लोक गीत इत्यादि की चर्चा की जाती है.

गीतं वाद्यं च नृत्यं च त्रयं संगीतमुच्यते ।

नारदेन कृतं शास्त्रं मकरन्दाख्यमुत्तमंम्॥ (1)

अर्थात्- नारद द्वारा लिखित यह शास्त्र मकरंद नाम से प्रसिद्ध एवं उत्तम है, जिसमें गीत, वाद्य तथा नृत्य के समन्वय को संगीत कहा जाता है. संगत का अर्थ है साथ चलना तथा अनुसरण करना जिसको दो भागो में विभक्त किया जा सकता है, स्वर की संगति व ताल या लय की संगीत.

प्राचीन काल की संगत परम्परा संगीत में संगत की कला अति विस्तृत व प्राचीन है, समय के अनुसार संगत के स्वरूप में बदलाव देखने को मिलता है. वैदिक काल में सामवेद की ऋचाओं के गान में जब वेदों का पाठ किया जाता था, तो ब्राह्मणों का एक विशेष वर्ग लय दिखाने का कार्य करता था. संगीत में लय-ताल और उसके विभागों (खंड) का दिग्दर्शन कराने के लिए जिस का सर्वप्रथम उपयोग किया गया वह मानव की अपनी हथेलियाँ थी दोनों हथेलियों को संयुक्त कर ताली देने और उन्हें प्रथक कर खाली देने की प्रक्रिया सबसे पहले प्रचार में आयी.(2)  

प्राचीन काल में संगत में ताल लय का स्वरूप देखने को मिलता है, धीरे-धीरे वाद्यों यंत्रों के बारे में गुणीजनों द्वारा सोचा गया, जिसके पश्चात् लय दर्शाने के लिए सर्वत्र भूमि-दुंदभी एवं दुंदभी नामक वाद्ययंत्रो का आविष्कार हुआ. वैदिक काल से पहले सिन्धु कालीन सभ्यता में प्राप्त आकृतियों से यह प्रमाण प्राप्त होता है कि तत्कालीन जीवन में संगीत का प्रचलन धार्मिक व लौकिक अवसर पर गीत, वाद्य और नृत्य के साथ लोगों का मनोरंजन किया जाता था और इसके साथ संगत वाद्य के रूप में ढोल, दुन्दुभी जैसे वाद्यों का प्रयोग किया जाता था. 

स्यिते तत्त्वं प्रयोक्तव्यं मध्ये चानुत्तमं भवेत् ।

द्रुते चौघं प्रयुञ्जीयादेष वाद्यगतो विधिः ॥(3) 

अर्थात्– वाद्यों की वादन विधि यह है की ‘स्थित’ मे ‘तत्व’का प्रयोग करना चाहिए मध्य मे ‘अनुगत’ का तथा द्रुत मे ‘ओघ’ का प्रयोग करना चाहिए. भरतकृत नाट्यशास्त्र में संगत का वर्णन प्राप्त होता है कि नाट्यशास्त्र काल में गीत की संगति के लिए वीणा वादन किया जाता था जिसे त्रिविधि की संज्ञा दी गई है त्रिविध अर्थात् तत्व, अनुगत तथा ओघ तत्व की लय विलंबित, अनुगत की लय मध्य तथा ओघ की लय द्रुत बताई गई है. 

प्राचीन गुप्त काल युग के सातवाहन युग में अमरावती नामक स्थान से प्राप्त भित्तियों पर सांगितिक चित्र दर्शाए गये है जिससे वाद्यों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है, उदाहण के तौर पर एक दृश्य में नायक-नायिका को विनय रूप में दर्शाया गया है जिसके साथ वेणु की संगति की चित्रित है. अमरावती के स्थान पर प्राप्त शिला चित्रों में कोण द्वारा बजाये जाने वाली दो प्रकार की वीणाओं, मृदंग, तुरही, ढोलक तथा पुष्कर आदि वाद्यों की संगत गीत व नृत्य के साथ की जाती थी.(4) गुप्त काल के ग्वालियर राज्य में पवया नामक स्थान से प्राप्त एक शिल्प पर तीसरी शताब्दी के समय की प्रचलित संगीत के चित्र दर्शाए गए जिसमें नृत्य की मुद्रा में सम्बद्ध है, जिसमें वाद्यवृन्दों के साथ संगत की जा रही है, इन वाद्यवृन्दो में दो वीणायें एक बांसुरी और अवनद्ध वाद्यों को दर्शाया गया है. (5) 

कालीदास के ग्रंथों में कई प्रकार के संगत वाद्यों का वर्णन प्राप्त होता है. इस काल के संगीत को समृद्ध रूप में देखा जा सकता है, तथा संगीत को पूर्ण सम्मान प्राप्त था. चित्त की प्रसन्नता हेतु राज्य दरबारों में गायन, वादन और नृत्य का आयोजन होता था, जिसमें वेणु वादक, गाता और मुरज वादक इन तीनो का सहयोग जरुरी था. वस्तु गान से पहले गायक आधुनिक नोम-तोम के समान ही आलाप करता था, इसके पश्चात् मुरज, मृदंग व बांसुरी के साथ संगत की जाती थी. प्राचीन संगीत परम्परा के अनुसार मृदंग का प्रयोग लय स्थापित करने व बांसुरी का प्रयोग गायक को स्वर दिखने के लिए किया जाता था.(6) कालिदास के समय में अवनद्ध वाद्यों में मृदंग, मुरज, वारिमिरदंग व पुष्कर वाद्यों का उल्लेख प्राप्त होता है. डॉ० परांजपे द्वारा लिखित पुस्तक भारतीय संगीत का इतिहास में यह वर्णन प्राप्त होता है कि रघुवंश सर्ग के अंतिम राजा अग्निवर्ण पुष्कर वाद्य बजाने में प्रवीण थे, तथा वाद्य के द्वारा नृतकियों के साथ संगति किया करते थे.(7) मध्य युग के ग्रन्थ के संगीत रत्नाकर में संगत वाद्यों का वर्णन प्राप्त होता है, 

“शुष्क गीतानुंग नृत्तागमन्यम् द्वयानुगम् ॥

चतुर्धेतिमंत वाद्य शुष्कं तदुच्यते ।

याद्विना गीतनृत्ताभयां तदगोष्ठी त्युच्य्ते बुधैः॥

ततः पर तु त्रियं भवेदन्वर्थनामकम् ॥” (8)

अर्थात्– शारंगदेव द्वारा इन वाद्यों के प्रयोग के लिए शुष्क, गीतानुग, नृत्तानुग तथा द्वयानुग  इनको चार भाग में विभक्त किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि मध्य युग में संगत वाद्यों को गीतानुग तथा नृत्तानुग कहा जाता था, तथा जो वाद्य गीत व नृत्य दोनों के साथ संगत करते थे उन्हें द्वयानुग कहा जाता था. संगीत रत्नाकर में मर्दल, डमरू, पटह, दुन्दुभी, ढक्का, भेरी, मृदंग आदि अवनद्ध वाद्यों का वर्णन प्राप्त होता है, जिनके द्वारा संगत की जाती थी.

मुग़ल काल के प्रमुख संगीतज्ञों में तानसेन का नाम सर्वाधिक प्रचलित है. 1719 में दिल्ली की गद्दी पर मोहम्मद शाह रंगीले आसीन हुये जिनके दरबार में कई उच्च कोटि के कवि व संगीतकार विद्यमान थे यह काल संगीत कला एवं साहित्य की दृष्टि से क्रांतिकारी माना जाता है, क्योंकि इस समय ध्रुपद-धमार गायकी के स्थान पर ख्याल, ठुमरी, दादरा, कव्वाली जैसी गायन शैलियों तथा वीणा जैसे तंत्री वाद्यों के स्थान पर नवीन तंत्री वाद्य सितार का विकास इस काल में हुआ. उस समय की ख्याल गायकी में आज की शास्त्रीयता व नियमबद्धता का साक्ष्य कम पाया जाता है, क्योंकि इस समय ख्याल गायकी तथा उनके गायक-गायिकाओं को उतना सम्मान नहीं दिया जाता था जितना की ध्रुपद-धमार के कलाकारों को दिया जाता था. ख्याल गायकी के प्रचार में पखावज और मृदंग के साथ संगत की जाती थी, लेकिन संगत वादकों को दरबार में खड़े होकर प्रस्तुति देनी पड़ती थी. यह स्थिति उनके लिए अत्यंत असहज और असम्मानजनक प्रतीत होती थी.

इसी समय कई नवीन श्रृंगारपूर्ण गायन शैलियाँ प्रचार में आने लगी जिनमें ठुमरी, दादरा, टप्पा आदि प्रमुख थे तथा इसी काल में वाद्यों में भी कई परिवर्तन आने लगे और मोहम्मद शाह रंगीले के दरबार में वीणा के स्थान पर सितार का प्रयोग होने लगा  जिसके साथ पखवाज की ज़ोरदार ध्वनि की संगति उचित प्रतीत नहीं होती थी. (9)  इस अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ख्याल गायकी की संगत के लिए कोमल व मुलायम चांटी प्रधान ताल (तबला) अभिजात संगीत में प्रकाश में आया और धीरे-धीरे इसका विकास और विस्तार संगीत के विभिन्न क्षेत्रों में संगत के लिए इसका प्रचलन बढने लगा तबला में मृदंग के खुले बोलों व ढोलक के मींड युक्त बोल और चांटी के बंद बोलो को बजाने की क्षमता होने से श्रृंगारिक गान प्रकारों के साथ संगत के लिए तबला को उपर्युक्त माना गया. 

वर्तमान (अर्वाचीन) अवनद्ध वाद्यों में तबला सर्वाधिक उपयोगी व लोकप्रिय माना गया है. मूलरूप से संगत का वाद्य होने के पश्चात् भी तबला वादन आज वर्तमान में इतना उन्नत व समृद्ध हो गया है, कि तबला वादन में विभिन्न प्रकार के प्रयोग व शोध हो रहे है. ख्याल गायन व सितार वादन का प्रचलन बढने से तबला वादन की प्रथा चली जिन तालों में ख्याल गायन व सितार वादन किया जाता किया जाता था उन्ही में तबला की संगत होती थी तथा आगे चलकर तबला वादन के वही ताल रूढ़ हुए जो कि ख्याल गायन व सितार आदि वाद्यों के वादन के साथ प्रयोग में लाये जाते थे. इसके साथ-ही-साथ तबला वादन का सम्बन्ध उपशास्त्रीय गायन की संगत में ठुमरी, लोकसंगीत, गजल, भजन, कव्वाली आदि विधाओं में भी रहा है, संगत की इन विधाओं के अतिरिक्त तबला वादन का प्रयोग ताल कचहरी तबला तरंग, ताल वाद्य वृन्द, सुगम नृत्य तथा फ़िल्मी संगीत की विधाओं में संगत के रूप में होता है. तबला अपने नाद सौंदर्य और नाद वैचित्र्य की अपरिमित क्षमता के कारण आज विश्व मंच पर एक प्रतिष्ठित ताल वाद्य के रूप में प्रतिष्ठित है. ख्याल गायन में तबला; विलंबित लय, ठेके की वर्ण योजना, उसके भराव आदि गुणों से गायन की सहायता करता है, तंत्र वाद्य की संगति में झाले के साथ एक रूप होकर के नाद सौंदर्य सृजित करता है, तो कथक नृत्य में विभिन्न मुद्राओं एवं घुंघरू की ध्वनि के साथ संयुक्त होकर उसकी रंजकता बढ़ता है.

  अतः आज तबला एक सर्वश्रेष्ठ अवनद्ध वाद्य के रूप में जाना जाता है. ऐसे किसी भी संगीत समारोह की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें लय ताल दिखने के लिए तबला वादन का प्रयोग न किया जाता हो, आज संगीत जगत में गायन शैलियों तथा संगीत समारोह में तबला संगत का भरपूर प्रयोग हो रहा है.

संगीत में संगत की परम्परा प्राचीन से अर्वाचीन तक निरंतर विकसित होती रही है तथा वर्तमान काल में भी विद्यमान है वर्तमान में तबला संगत के विभिन्न पहलु व महत्त्व प्राप्त होते है. गायन वादन व नृत्य इन तीनों विधाओं में संगत की आवश्यकता होती है. वर्तमान में अलग-अलग प्रकार के वाद्य और संगत शैलियों का आविष्कार होने से संगत का स्वरूप और वृहद हो चुका है जहाँ प्राचीन काल में स्वर संगति के लिए वीणा, वेणु जैसे प्राचीन वाद्यों का प्रयोग होता था वहीं आज अर्वाचीन (वर्तमान) में सारंगी, सरोद, सितार हारमोनियम इत्यादि स्वर वाद्यों का प्रयोग हो रहा है, इसी प्रकार लय ताल की संगति के लिए प्राचीन युग में दुन्दुभी जिसका विवरण वैदिक काल मे ऋग्वेद के 1.28.5 मंत्र मे प्राप्त होता है, तथा ऋग्वेद के छठे मण्डल मे क्रम से तीन श्लोको मे उल्लेख प्राप्त होता है भूमि-दुन्दुभी, मृदंग प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मृदंग पुष्कर वाद्यों की श्रेणी मे आता है, जिसका विस्तृत वर्णन भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र, नारद कृत संगीत मकरंद, शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर इत्यादि ग्रन्थों मे प्राप्त होता है.(10)

 पटहो मर्दलश्चाथ हुडुक्का करटा घटः ॥

घडसो ढवसो ढक्का कुडुक्का कुडुवा तथा।

रूंजा डमरूको डक्का मण्डिडक्का च डक्कुली॥

सेल्लुका झल्लरी भाणस्त्रिवली दुन्दुभिस्तथा।

भेरीनिःसाणतुम्बक्यो भेदाः स्युरवनद्धगाः ॥(11)

अर्थात्-पटह, मर्दल, हुडुक्का, करटा, घट, घडस, ढवस, ढक्का, कुडुक्का, कुडुवा, रूंजा, डमरू, डक्का, मण्डिडक्का, डक्कुली, सेल्लुका, झल्लरी, भाण, त्रिवली, दुंदुभि, भेरी, नि:साण, तुंबकी इत्यादि। वाद्यों के लक्षण का वर्णन संगीत रत्नाकर मे श्लोको के साथ दिया गया है, संगीत रत्नाकर मे प्राप्त वाद्यों पूर्ण वर्णन यहाँ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है, क्योकि वाद्यो का विस्तार अत्यधिक है यहा कुछ अंश प्रस्तुत कर के अपने कार्य की सार्थकता स्पष्ट करने का प्रयास है. पुष्कर, मर्दल, ढोल, भेरी, ढक्का, डमरू प्राचीन काल में इसे ‘ढक्का’ वाद्य कहते थे जिसका वर्णन नारद कृत संगीत मकरंद के श्लोक मे भी प्राप्त होता है.

मृदङ्गो ददुर्रश्चैव पणवस्त्वङ्गसंज्ञिकः ।

झर्झरी पटहादीनि शम्भो मुखरिकास्तथा(12)

अर्थात्- मृदङ्ग एक विशेष प्रकार की मिट्टी से निर्मित आकार वाला वाद्य और जिससे गरजने की सी ध्वनि उत्त्पन होती है, प्राचीन काल का ही एक वाद्य जिसमे शंख, भेरी, पणव, मुरज, ढक्का, घंटा, नाद आदि तथा एक वाद्य जिसकी ध्वनि भगवान शिव पर जलार्पण की ध्वनि जैसी हो साथ ही एक वाद्य जिस पर हाथों को घुमाते हुये पटक अथवा प्रहार देनें पर अथवा करने पर “भो” जैसा स्वर उद्घोषित होता है, नारद जी के द्वारा देवाधिदेव के समक्ष छंदोबद्ध अथार्त पद्य, गुणधर्म के रुप में क्रमानुसार इसके अंगों के स्वरूप कथन का गुणागान करना तथा उसकी महत्ता का वर्णन किया, इसके सभी निर्मित अवयवों को ध्यान में रखना चाहिए.

पटह आदि अवनद्ध वाद्यों का प्रयोग होता था, वही आज वर्तमान युग में तबला, पखावज मृदंग, ढोलक, ढोल, ‘डुगडुगी’ या ‘डिमडिमी’ डमरू वर्तमान मे इसका वादन मनोरंजन के लिए लोक संगीत मे संगति वाद्यों के रूप मे हो रहा है. नाल (महाराष्ट्र के लावणी-गायन में संगति मे इसका सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है.)(13) आदि अवनद्ध वाद्यों के साथ संगति के रूप में भी प्रयोग किया जाता है, यही नहीं आज संगत करने के तरीकों में भी परिवर्तन आया है. वर्तमान संगत की परंपरा विस्तृत स्वरूप प्राप्त कर रही है. चाहे लय ताल की संगत हो या स्वर वाद्य की संगत हो जो  समय-समय संगीत परंपरा के अनुसार बदलती रही है.

निष्कर्ष-  इन सभी अध्ययन के पश्चात् यह कहा जा सकता है, की प्राचीन काल से अर्वाचीन तक कई प्रकार के अवनद्ध वाद्यों का उपयोग गायन, वादन, नृत्य आदि के साथ ताल व लय संगत के लिए प्रयोग होता रहा है . मानव सभ्यता के विकास के साथ संगीत की आवश्यकता को देखते हुये अवनद्ध वाद्यों में परिवर्तन होते रहे है, और इनका महत्त्व युगों व कालों के साथ बढ़ता गया व इस परंपरा का दृढ़तापूर्वक निर्वाह अवनद्ध वाद्यों द्वारा सांगत के रूप में हो रहा है. संगीत कला के बारे में कुछ नियम बनाए गए और उसे एक व्यवस्था दी गई तो वह संगीत-कला का सिद्धान्त कहलाया। संगीत के इन्ही सिद्धान्तों को ऋषि मुनियों और आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथों द्वारा प्रस्तुत किया। जैसे- ‘नारदीय संहिता’, भरत कृत ‘नाट्यशास्त्र’, नारद कृत संगीत मकरंद, शारंग देव कृत ‘संगीत रत्नाकर’ एवं अहोबल द्वारा रचित ‘संगीत पारिजात’ इत्यादि. वर्तमान समय में प्रमुख अवनद्ध वाद्यों में तबला, पखावज, मृदंग, ढोलक, नाल आदि लोकप्रिय है. इन सभी अवनद्ध वाद्यों का संगीत के क्षेत्र में लय ताल व विभिन्न रस व भावों की संगत के लिए प्रयोग हो रहा है. वर्तमान समय में विभिन्न अवनद्ध वाद्य के वादक कलाकार इन वाद्यों की संगत परंपरा अतिकुशलता व निपूर्णता के साथ निर्वाहन कर रहे है. आज तबला, पखावज के विभिन्न घरानों व परम्पराओं का विकास और विस्तार हुआ है, इन घरानों के प्रतिनिधि कलाकार संगत वादन की परंपरा के साथ एकल वादन का बखूबी निर्वाहन कर रहे है . शोधार्थी द्वारा प्रस्तुत शोध पत्र मे यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है की सभी अवनद्ध जिनका प्रयोग संगत वाद्य के रूप मे हो रहा वह सभी अति प्राचीन काल से निरंतर देखे जा सकते है, लोक संगीत मे प्रयुक्त प्रत्येक अवनद्ध का वर्णन अति प्राचीन काल से विभिन्न ग्रन्थों जैसे भरत कृत ‘नाट्यशास्त्र’, नारद कृत संगीत मकरंद, शारंग देव कृत ‘संगीत रत्नाकर’ एवं अहोबल द्वारा रचित ‘संगीत पारिजात’ इत्यादि मे प्राप्त होता आया है. वेद, पुराण, उपनिषद, महाकाव्य से लेकर वर्तमान तक स्वरूप व नाम के अनगिनत परिवर्तनो के साथ प्रयोग किया जा रहा है.