डॉ० रितु सिंह
असिस्टेन्ट प्रोफेसर – सितार
कमला आर्य कन्या पी. जी. कालेज, मीरजापुर, उत्तर प्रदेश
Email ID: ritujeets@gmail.com
सारांश
संगीत विषयक ग्रन्थों की श्रृंखला में पं. शाङ् र्गदेव द्वारा रचित ‘‘संगीत रत्नाकर’’ सर्वाधिक चर्चित एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है. 13वीं शताब्दी में लिखा गया यह ग्रन्थ संगीत के प्राचीन परम्पराओं के प्रकाशन के साथ-साथ तत्कालीन संगीत में हो रहे परिवर्तनों की प्रमाणिक सूचना भी देता है. ‘संगीत रत्नाकर’ एक ऐसा पूर्ण ग्रन्थ है जिसमें लेखक ने संगीत सम्बन्धी सभी पक्षों पर सम्यक् विचार प्रस्तुत किया है.जब भारतीय संस्कृति एवं संगीत पर विदेशियों का आक्रमण हो रहा था, उस समय उत्तरी भारत के संगीत में तो फारसी सभ्यता और संस्कृति के कारण नया मोड़ आया, परन्तु दक्षिण भारत में प्राचीन संगीत की सुरक्षा एवं संवृद्धि होती रही. दक्षिण भारत में इसी समय एक प्रकाण्ड विद्वान पं. शाङ् र्गदेव हुए. राजनैतिक अस्त- व्यस्तता जैसी विषम परिस्थितियों में पं. शाङ् र्गदेव ने बिखरे हुए ग्रन्थों को एकत्र किया, उनका अध्ययन किया, मनन-चिन्तन कर उनको एक साकार ग्रन्थ ‘‘संगीत रत्नाकर’’ का रूप दे दिया. पं. शाङ् र्गदेव द्वारा रचित ग्रन्थ ‘संगीत रत्नाकर’ भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत का एक ऐसा ग्रन्थ है जिसे हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत, दोनों ही पद्धतियों में आधार ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है.
बीज शब्द : स्वरगत, रागविवेक, प्रकीर्णक , प्रबन्ध, ताल, वाद्य, नर्तन.
शोध उद्देश्य : प्रस्तुत शोध-पत्र के लेखन का मुख्य उद्देश्य भारतीय ग्रन्थ परम्परा में प्रतिपादित सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ पं. शाङ् र्गदेव कृत ‘‘संगीत रत्नाकर’’ ग्रन्थ में वर्णित विषयों पर प्रकाश डालना तथा भारतीय शास्त्रीय संगीत के संवर्धन में वर्णित ग्रन्थ में संकलित विषयों का अध्ययन करना है.
शोध प्रविधि : प्रस्तुत शोध-पत्र के लेखन हेतु पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों एंव साक्षात्कार के माध्यम से तथ्यात्मक सामग्री संकलित की गयी है.
विषय प्रवेश : पं. शाङ् र्गदेव द्वारा रचित ग्रन्थ ‘संगीत रत्नाकर’ भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत का एक ऐसा ग्रन्थ है जिसे हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत, दोनों ही पद्धतियों में आधार ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है. इस ग्रन्थ के माध्यम से न केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्राचीन विधाओं, स्वरों, रागों, गीति, जातिगायन, ताल, वाद्य व नृत्य आदि से सम्बंधित जानकारी आधुनिक संगीत विद्वानों को उपलब्ध् हो सकी है. अपितु संगीत रत्नाकर में पं. शाङ् र्गदेव के पूर्व ग्रन्थकारों में भरत, मतंग, दत्तिल आदि ग्रन्थकारों के मतों के उल्लेख होने से यह ग्रन्थ भारतीय संगीत का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सिद्ध होता है.
संगीत रत्नाकर ग्रन्थ संगीत जगत में बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ को लेखक ने सात अध्यायों में वर्गीकृत किया है. अत: इसे ‘सप्ताध्यायी’ भी कहते है. इसके सात अध्याय हैं- स्वरगत अध्याय, रागविवेक अध्याय, प्रकीर्णक अध्याय, प्रबन्ध अध्याय, ताल अध्याय, वाद्य अध्याय और नर्तन अध्याय का ग्रन्थकार ने विशद् वर्णन किया है.
प्रथम अध्याय – ‘स्वरगत अध्याय’ में आठ प्रकरण हैं, जिनके नाम इस प्रकार है- पदार्थ संग्रह, पिण्डोत्पत्ति, नादस्थानश्रुतिस्वरजाति कुल दैबतर्षिच्छदोरस, ग्राममूर्च्छनाक्रमतान, साधारण, वर्णालंकार, जाति और गीति.
1. पदार्थ संग्रह प्रकरण – पदार्थ संग्रह प्रकरण में आरम्भ के 14 श्लोकों में मंगलाचारण है, जिस में लेखक ने अपना व आश्रयदाताओं का परिचय दिया है. तत्पश्चात् उन पूर्वाचार्यों के नामों का उल्लेख किया हैं. जिनके ग्रन्थों का अध्ययन कर लेखक ने इस कृति की रचना की है. जिन आचार्यों का इस खण्ड में नामोल्लेख है, उनकी संख्या उन्तालीस है. उनके नाम इस प्रकार है-
1. सदाशिव, 2. शिवा, 3. ब्रह्मा, 4. भरत, 5. कश्यप, 6. मतंगमुनि, 7. याष्टिक, 8. दुर्गा, 9. शक्ति, 10. शार्दूल, 11. कोहल, 12. विशालिख, 13. दत्तिल, 14. कम्बल, 15. अश्वतर, 16. वायु, 17. विश्वावसु, 18.रम्भा, 19. अर्जुन, 20. नारद, 21. तुम्बरू, 22. आंजनेय, 23.मातृगुप्त, 24. रावण, 25. नन्दिकेश्वर, 26. बिन्दुराज, 27. राहल, 28. रूद्रट, 29. नान्यभूपाल, 30. भोज 31. परमर्दी, 32. सामेश, 33.जगदेकमल्ल, 34. अभिनवगुप्त, 35. कीर्तिधर, 36. लोल्लट, 37.उद्भट, 38. शंकुक, 39. स्वातिर्गण इत्यादि. [i]
इसके पश्चात् संगीत की परिभाषा हैं, जो कि निम्न है-
‘गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीत मुच्चते
मार्गी देशीति तद्देध तत्र मार्ग: स उच्चते
देशे देशे जनानां यद्रच्या हृदय रंजकम
गीतं च वादनं नृत्यं देशांत्यभिधीयते..’[ii]
अर्थात गीत, वाद्य तथा नृत्य ये तीनों ही संगीत कहलाते है. मार्ग और देशी भेद से संगीत दो प्रकार का है-मार्ग वह है जिसे ब्रह्मादि देवताओं ने खोज निकाला है. यह संगीत कल्याण देने वाला है. जो संगीत गीत, वादन, नृत्य के साथ देश-देश में जनरूचि के अनुकूल लोक का हृदयरंजक होता है, वह देशी कहलाता है.
2. पिण्डोत्पत्ति प्रकरण – इस प्रकरण में लेखक ने ‘‘पिण्ड’’ अर्थात मानव शरीर की उत्पत्ति का विस्तृत विवेचन किया है. ‘‘पिण्डोत्पत्ति’’ प्रकरण में आयुर्वेद, वेदान्त तथा हठयोग तीनों पर लेखक द्वारा प्रकाश डाला गया है तथा तीनों का समन्वय दिखाया गया है. वेदान्तानुसार ‘जीव’ अनादि वासना के कारण कर्मानुसार देह प्राप्त करता है. आयुर्वेद के अनुसार माता के गर्भ में जीव से क्रमश: कैसे बढ़ता है, कैसे विकास को प्राप्त करता है तथा कैसे बाहर इस संसार में आता है यह बताया गया है. स्थूल रूप से शरीर में स्थित शक्ति केन्द्रों का वर्णन किया है. तथा नाड़ी संस्थान के सम्बन्ध के विषय में भी बताया गया है. आचार्य शारंगदेव ने पिण्डोत्पत्ति प्रकरण में ही पिण्डस्थित चेतना शक्ति के केन्द्र के रूप में दस शरीरस्थ- चक्रों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है [iii]–
नाम | स्थान | दल |
आधार चक्र | गूदा व लिंग के मध्य स्थित | चार दलो वाला |
स्वाधिष्ठान चक्र | लिंग के मूल में स्थित | छह दलों वाला |
मणिपूरक चक्र | नाभि में स्थित | दस दलों वाला |
अनाहत चक्र | हृदय में स्थित | बारह दलों वाला |
विशुद्धि चक्र | कण्ठ में स्थित | सोलह दलों वाला |
ललना चक्र | जिह्वा मूल में (घण्टिका में) स्थित | बारह दलों वाला |
आज्ञा चक्र | भृकुटि में स्थित | तीन दलों वाला |
मन चक्र | भृकुटि में स्थित | छह दलों वाला |
सोम चक्र | भृकुटि में स्थित | सोलह दलों वाला |
सुधा चक्र | ब्रह्मा रूध्र (मस्तिष्क में स्थित) | सहस्त्र दलों वाला |
3. नाद स्थान श्रुति स्वर जाति कुल दैवतर्षिच्छदो रस प्रकरण – इस प्रकरण में नाद, स्थान, श्रुति, स्वर, जाति, कुल देवता, ऋषि, द्वीप, छन्द और रस आदि विषयों का सम्यक् उल्लेख ग्रन्थकार द्वारा किया गया है. इनका विवेचन निम्नवत है-
नाद – पं. शाङ् र्गदेव ने अपने ग्रन्थ में नाद को परिभाषित करते हुए लिखा है कि
‘‘नकारम् प्राणमामानं दकारमनलं विदु:
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते..’’
अर्थात ‘नकार’ प्राण-वाचक (वायु-वाचक) तथा ‘दकार’ अग्नि-वाचक है, अत: जो वायु और अग्नि के संयोग से उत्पन्न होता है, उसी को नाद कहते है. नाद का वर्णन करते हुए दो प्रकार के नाद आहत और अनाहत बताये हैं, यथा-
‘‘आहतोअनाहतश्चेति द्विध, नादो निगद्यते.’’
स्थान – नाद, अर्थात् आवाज की ऊँचाई और निचाई के आधार पर उसके मंद्र, मध्य और तार से तीन स्थान माने हैं. हृदय से मन्द्र, कण्ठ से मध्य और मूर्धा से तार स्थान के स्वर बताया है.
श्रुति – इस ग्रन्थ में बाईस श्रुतियाँ बताई गई है जो कि सर्वसम्मत है. हृदय अर्ध्व नाड़ी में संलग्न 22 नाड़ियाँ है, जिनमें वायु के आघात से उच्च-उच्चतर श्रुतियाँ उत्तरोत्तर उत्पन्न होती है. २२ श्रुतियों के नाम इस प्रकार है-
(1)तीव्रा (2) कुमुदवती (3) मन्दा (4) छन्दोवती (5) दयावती (6) रंजनी (7) रक्तिका (8) रौद्री (9) क्रोधा (10) बङ्किाका (11) प्रसारिणी (12) प्रिति (13) मार्जिनी (14) क्षिती (15) रक्ता (16) संदीपिनी (17) अलापिनी (18) मदन्ती (19) रोहिणी (20) रम्या (21) उग्रा (22) क्षोभिणी.
सारणा – सारणा चतुष्टयी द्वारा श्रुतियों को नवीन विधि से संगीत-रत्नाकर में समझाया गया है. भरतादि ने चल व अचल दोनों वीणाओं में सात-सात तार लगाए थे किन्तु पं. शाङ् र्गदेव ने 22-22 तार लगाकर सारण-विधि सम्पन्न की. भरतादि ने षड्ज-मध्यम संवाद के लिए नौ श्रुति और षड्ज-पंचम संवाद के लिए तेरह श्रुतियों का विधान किया जबकि शाङ् र्गदेव ने आठ व बारह श्रुतियों का अन्तर माना है.
स्वर – ग्रन्थकार ने सात शुद्ध एवं बारह विकृत स्वर माना है. सात शुद्ध स्वर है-
षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद तथा बारह विकृत स्वरों के नाम इस प्रकार है- 1. च्युत षड्ज, 2. अच्युत षड्ज, 3. विकृत ऋषभ, 4. साधारण-गान्धार, 5. अन्तर-गान्धार, 6. च्युत-मध्यम, 7. अच्युतमध्यम, 8. मध्यम ग्रामिक-पंचम 9. वैâशिक पंचम, 10. विकृत धैवत, 11. वैशिक निषाद, 12. काकली निषाद.
श्रुति-जाति – 22 श्रुतियों को दीप्ता, आयता, करूणा, मृदु और मध्या इन पाँच जातियों में विभक्त किया गया है. इन पाँचों जातियों की अपनी-अपनी श्रुतियाँ है जो कि इस प्रकार है-
जाति – श्रुति नाम
दीप्ता – तीव्रा, रौद्री, बज्रिका, उग्रा
आयता – कुमुदवती, क्रोधा, प्रसारिणी, संदीपनी, रोहिणी
करूणा – दयावती, अलापनी, मदन्ती
मृदु – मंदा, रति, प्रिती, क्षिति
मध्या – छंदोवती, रंजनी, मार्जनी, रक्तिका, रम्या, उग्रा, क्षोभिणी
कुल देवता रसादि – ग्रन्थकार ने सातों स्वर (सा,रे,ग,म) के रंग, वर्ण, पशु, पक्षी, देवता, रस आदि का वर्णन किया है, जो कि सारिणी द्वारा द्रष्टव्य है-
स्वर | पशु-पक्षी | कुल | वर्ण | ग्रह | देवता | रस |
षड्ज | मोर | ब्राह्मण | रक्त | चन्द्र | अग्नि | अद्भुत |
ऋषम | चातक | क्षत्रिय | पिंजर | बुद्ध | ब्रह्मा | रोद्र |
गान्धार | बकरा | वैश्य | स्वर्ण | शुक्र | चन्द्रमा | करूण |
मध्यम | क्रोंच | ब्राह्मण | श्वेत | सूर्य | विष्णु | श्रृंगार |
पंचम | कोयल | ब्राह्मण | श्याम | मंगल | लक्ष्मी | श्रृंगार |
धैवत | मेढ़क | क्षत्रिय | पीत | गुरु | गणेश | विभत्स |
निषाद | हाथी | वैश्य | मिश्रित | शनि | सूर्य | करूण |
4. ग्राम मूर्चना – ग्राम की परिभाषा देते हुए इस ग्रंथ में कहा गया है कि स्वरों का वह समूह जो मूर्च्छनाओं का आश्रय है, ग्राम कहलाता है. पृथ्वी पर दो ही प्रकार के ग्राम षडज ग्राम व मध्यम ग्राम कहे गए हैं. सातों स्वरों में षडज स्वर का स्थान प्रथम है और उसके दो संवादी मध्यम और पंचम होने के कारण षडज ग्राम मुख्य है. मध्यम स्वर अविलोपी है यानि किसी जाति या मूर्छना तान में इसका लोप नहीं किया जा सकता इसलिए दूसरे ग्राम को मध्यम ग्राम की संज्ञा दी गई है. मध्यम ग्राम भी माना जा गया है कि यह पृथ्वी पर नहीं है. सारंग देव ने संगीत रत्नाकर में नारद के मत से गंधार ग्राम का भी वर्णन किया है. तीनों ग्रामों की 21 मूर्छना बताए गए हैं. दोनों षडज और मध्यम ग्रामों की 14 मूर्चनाओं के विकृत स्वरों के प्रयोग से चार-चार भेद किए गए हैं .
उसके बाद स्वर प्रस्तार, खंड मेरू विधि का उल्लेख किया गया है जिससे प्रत्येक मूर्छना के 5040 स्वर प्रस्ताव बनते हैं. 5040 को 56 से गुणा करने पर 282240 कूट तान कही गई है. इतना ही नहीं इनके साथ 6,5,4,3,2 और एक के कुल 317930 भेद बताए गए हैं .
खंड मेरू – इस विधि में बताया गया है कि निश्चित स्वरों के अधिकतम कितने प्रस्तार हो सकते हैं, जिसमें न तो कोई पुनरुक्ति होगी और ना ही कोई स्वर प्रस्तार छूटेगा. खंड मेरू विधि द्वारा किसी प्रस्तार की कौन सी संख्या है या किस संख्या का कौन सा प्रस्तार होगा इसे निकालने की विधि को ‘नस्टोदिस्’ विधि कहते हैं. इस प्रस्तार को देखने से शाङ् र्गदेव का गणित जैसे विषय पर कितना नियंत्रण है, यह भी ज्ञात होता है. संगीत रत्नाकर में औडव और षाडव की 84 तान दी गई है.
5. साधारण प्रकरण – इसमें स्वर साधारण और जाति साधारण बताई गई है. साधारण का अर्थ है विकृत. तीसरे प्रकरण में तो विकृत स्वर 12 बताए गए हैं फिर भी इस संक्षिप्त प्रकरण में स्वर के साथ-साथ जाति साधारण की भी व्याख्या की गई है.
6. वर्ण–अलंकार प्रकरण – इस प्रकरण में वर्ण की परिभाषा, उसके चार प्रकार स्थाई, आरोही, अवरोही और संचारी मिलकर कुल 63 अलंकार कह गए हैं. शारंगदेव ने इन अलंकारों को चार वर्गों में विभक्त किया है. अलंकार तो लगभग वर्तमान वाले ही हैं पर आज हम इन अलंकारों को वर्णों के भेद से नहीं पहचानते की कौन सा अलंकार स्थाई व या आरोही वर्ण का है अथवा किसी अन्य वर्ण का है.
7. जाति प्रकरण – वर्तमान रागों की जननी जातियां थी. इस प्रकरण में 18 जातियों का विस्तृत वर्णन है. जिनमें 7 शुद्ध और 11 संचारी यानी दो या दो से अधिक जातियों के मिश्रण से मिलकर बनी हुई जातियों का वर्णन है. शुद्ध जातियों में षडज से षडजी और ऋषभ से अऋषभी आदि सातों स्वरों के नाम वाली जातियां थी. 18 जातियों में से सात षडज ग्राम की और 11 मध्यम ग्राम की जातियां थी.
8. गीति प्रकरण – पद तथा लय संयुक्त वर्ण आदि से अलंकृत गान की क्रिया को गीति कहा है. इसके चार प्रकार बताएं हैं – मागधी, अर्ध मागधी, संभावित और पृथुला.
द्वितीय अध्याय – राग विवेकाध्याय : इस अध्याय में 264 रागों को दो प्रकरण के अंतर्गत विभक्त किया गया है – पहले प्रकरण में रागों के दस लक्षण और छ: मार्ग राग (ग्रामराग, उपराग, राग, भाषा, विभाषा और अंतरभाषा) के रागों का निरूपण है और दूसरे प्रकरण में देशी वर्ग के रागांग, क्रियांग, भाषांग और उपांग रागों का निरूपण है.
तृतीय अध्याय – प्रकीर्णकाध्याय : इस अध्याय में वाग्येकार के (उत्तम, मध्यम, अधम) तीन भेद , गायक भेद (20 गुण 25 अवगुण), शब्द भेद, शरीर लक्षण, गमक के 15 भेद, स्थाय, आलप्ति भेद एवं वृंदवादन इन 11 विषयों पर चर्चा की गई है.[iv]
चतुर्थ अध्याय – प्रबंधाध्याय : इस अध्याय में संगीत दो प्रकार की बताई गयी है- निबद्ध तथा अनिबद्ध. निबद्ध संगीत के अंतर्गत ही प्रबंध, वस्तु एवं रूपक यह तीन भेद माना गया है. ग्रंथकार ने प्रबंध के छ: अंग, चार धातु, एवं पांच जातियों का इस अध्याय में वर्णन किया है-
छ: अंग- स्वर, विरुद्, पद, तेनक, पाट, ताल.
चार धातु- उदग्राह, ध्रुव, मेलापक, आभोग.
पांच जातियों- मेदिनी, आनंदिनी, दीपिनी, भाणीनी, तारावली.
पंचम अध्याय – तालाध्याय : इस अध्याय के अंतर्गत मार्ग ताल एवं देशी ताल का विशद वर्णन है. मार्ग ताल पांच बताई गई है- चच्चत्पुट, चाचपुट, षट्पितापुत्रक, सम्पक्वेष्टाक, उद्घट्ट. इसके एकल, द्विकल और चतुष्कल का संबंध क्रमशः चित्र, वार्तिक और दक्षिण मार्ग से जोड़ा गया है. 14 गीतकों का विस्तृत वर्णन इस अध्याय में किया गया है. तालाध्याय के दूसरे भाग में देशी तालों का वर्णन किया गया है. इसके अंतर्गत ग्रंथकार ने 120 तालों का वर्णन किया है. इसी अध्याय में ताल के दस प्राण काल, क्रिया, कला, मार्ग, अंग, यति, प्रस्तार, ग्रह, लय, जाति बताए गए हैं.
षष्ठम अध्याय – वाद्याध्याय : इस अध्याय में तत्, अवनद्ध, घन, सुषिर वाद्यों के चतुर्विद भेद, वादन विधि, वाद्यों का स्वरूपात्मक एवं गुणात्मक वर्णन एवं वाद्य तथा वादकों के गुण दोष का वर्णन किया गया है. यथा-
तत् ततं सुसिरं चावनवद्धं घनमिति स्मृतम् .
चतुर्धा तत्र पूर्वाभ्याम श्रुत्यादिद्वारतो भवेत्..[v]
तत् वाद्य- इसके अंतर्गत तत् वाद्य के समान लक्षण, वीणा वादन के विभिन्न हस्त व्यापार, दस विधि वाद्य, श्रुति और स्वर के भेद से वीणा के दो प्रकार तथा विभिन्न वीणाओं का स्वरूपात्मक एवं गुणात्मक उल्लेख किया गया है. वादक के गुण-दोष की चर्चा की गई है. इस अध्याय के अंतर्गत नि:शंक वीणा का भी उल्लेख किया गया है.
अवनद्ध वाद्य- अवनद्ध वाद्य के अंतर्गत पटवाद्य के मार्ग और देशी भेद से दो रूपों का वर्णन है . पटाक्षार, पाटों के भेद, नाग बंध आदि के 35 हस्त पाटों का निरूपण, 21 हुड़ुक वाद्य के पाट, मार्दलिक के भेद एवं गुण- दोष तथा अन्य अवनद्ध वाद्यों का उल्लेख किया गया है. अवनद्ध वाद्यों में प्रयुक्त होने वाली लकड़ी और चमड़े के गुण- दोष भी बताए गए हैं.
घन वाद्य– घन वाद्य के अंतर्गत ताल के लक्षण देकर निम्न छ: वाद्यों का वर्णन किया गया है- घंटा, क्षुद्रघंटा, जयघंटा, काम्रा, शुक्ति और पट्ट बताएं हैं तथा अंत में घन वाद्य एवं वादक के गुण दोष दिए गए हैं
सुषिर वाद्य– इसके अंतर्गत वंशी के लक्षण, उसके 14 भेद, स्वरोत्पत्ती, वीणा की भांति ही बांसुरी में भी धातु का वर्णन एवं फूंक मारने के गुण व दोष बताए गए हैं.[vi]
सप्तम अध्याय – नृत्याध्याय : इस अध्याय में पं. शाङ् र्गदेव ने नाट्य एवं नृत्य का विशद् विवेचन किया है. नृत्याध्याय के अंतर्गत नाट्य की उत्पत्ति, अभिनय के भेद, नृत्य एवं नृत का लक्षण आदि का उल्लेख किया गया है. नृत्याध्याय में नौ रस- श्रृंगार, हास्य, करूण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत इन नौ रसों के बारे में व्यापक वर्णन किया गया है . साथ ही नौ रसों के स्थायी भाव – क्रमशः रति, हास, क्रोध, शोक, उत्साह, जुगुप्सा, भय, विस्मय और निर्वेद बताए हैं. विभाव, अनुभाव और संचारी भाव विषयक भी विस्तृत उल्लेख किया गया है.
निष्कर्ष – संगीत शास्त्र और कला दोनों ही पक्षों में पारंगत होने के कारण पं. शाङ् र्गदेव ने संगीत रत्नाकर नामक इस विशाल कृति को इतने विश्वास से लिखा है कि उसमें कहीं भी संदेह नहीं है. यह संगीत का एक मात्र ऐसा ग्रंथ है, जिस पर सात टीकाएं लिखी गई है. अतः इस ग्रंथ को भारत में प्रचलित उत्तरी एवं दक्षिणी दोनों ही संगीत पद्धतियों का आधार ग्रंथ कहना अतिसंयोक्ति नहीं होगा.
संदर्भ ग्रन्थ सूची:
[i] दासगुप्ता, लिपिका, “भारतीय संगीत शास्त्र ग्रंथ परंपरा : एक अध्ययन”, प्रेस एंड पब्लिकेशन सेल काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 2009, पृo संo 83
[ii] चौधरी, सुभद्रा, “शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर ‘सरस्वती’ व्याख्या और अनुवाद सहित” तृतीय खंड, राधा पब्लिकेशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृo संo 299
[iii] दासगुप्ता, लिपिका, “भारतीय संगीत शास्त्र ग्रंथ परंपरा : एक अध्ययन”, प्रेस एंड पब्लिकेशन सेल काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 2009, पृo संo 84
[iv] चटर्जी, गौतम, “संगीत विमर्श”, अभिनव गुप्ता अकादमी, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 2009, पृo संo 215
[v] चौधरी, सुभद्रा, “शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर ‘सरस्वती’ व्याख्या और अनुवाद सहित” तृतीय खंड, राधा पब्लिकेशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृo संo 249
[vi] दासगुप्ता, लिपिका, “भारतीय संगीत शास्त्र ग्रंथ परंपरा : एक अध्ययन”, प्रेस एंड पब्लिकेशन सेल काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 2009, पृo संo 99